बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहास एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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हिन्दी काव्य का इतिहास
अध्याय - 8
रीतिकाल : नामकरण की समस्या, पृष्ठभूमि, प्रवृत्तियाँ
एवं प्रमुख गौण कवि एवं उनका काव्य तथा रीतिबद्ध एवं रीतिमुक्त काव्यधारायें
प्रश्न- रीतिकालीन ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक पृष्ठभूमि की समीक्षा कीजिए।
उत्तर -
आचार्य शुक्ल ने 1700 से 1900 वि0 सं0 तक के 200 वर्ष के काल को अपने हिन्दी के साहित्य इतिहास में रीतिकाल की संज्ञा प्रदान की है, शुक्ल जी से पहले मिश्र बन्धुओं ने इस काल खण्ड का नाम अलंकृत काल रखा था और शुक्ल जी के बाद श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र तथा अन्य विद्वानों ने इसका नाम श्रृंगार काल रखने का सुझाव दिया है किन्तु साहित्य के अधिकांश ग्रन्थों में आज भी शुक्ल जी द्वारा सुझाया गया नाम ही स्वीकार किया जाता है। रीति शब्द का प्रयोग संस्कृत काव्यशास्त्र में एक विशेष अर्थ में हुआ है। संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य या साहित्य के सम्बन्ध में जिन पाचों मतों का विकास हुआ था उनमें एक आचार्य बामन द्वारा प्रवर्तित रीति सम्प्रदाय था। वामन ने रीति की परिभाषा विशिष्ट पद - रचना के रूप में की है। हिन्दी साहित्य के इतिहास प्रसंग में रीति का यह अर्थ अभिप्रेत नहीं है। हिन्दी में रीति का अर्थ काव्य रीति है जिसमें काव्य के सभी अंग, रस, अलंकार, छन्द, ध्वनि आदि समाहित हो जाते हैं। अतः हिन्दी के रीति काव्य का सम्बन्ध आचार्य वामन के रीति सम्प्रदाय से नहीं है।
रीतिकालीन परिस्थितियाँ -
(1) सामाजिक परिस्थितियाँ - जिस काल में रीतिकालीन साहित्य की रचना हुई है उस युग की सामाजिक परिस्थितियों में बड़ी अव्यवस्था थी। युगल शासक वैभवप्रिय तथा विलासिताप्रिय थे। समस्त भारत निरंकुश राजतन्त्र था। लोगों में व्यक्तिगत स्वार्थ भरे हुए थे। मुगल शासक सुरा और सुरी के लोलुप थे। वैश्यावृत्ति का बोलबाला था। परिणामतः यथा राजा तथा प्रजा वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी है। डॉ. शिवकुमार शर्मा ने ठीक ही लिखा है, "कुल मिलाकर इस युग को विलासिता प्रधान युग कहा जा सकता है। यों तो मुगल वंश के ऐश्वर्य और वैभव में विलासिता की प्रधानता आरम्भ से चली आ रही थी फिर भी बाबर, हुमायूँ तथा अकबर ने अपने आप को बहुत कुछ नियन्त्रित रखा। शराब के नशे में मखमूर रहने वाले तथा नूरजहाँ पर कुर्बान होने वाले जहाँगीर के व्यक्तित्व में विलासिता उग्र रूप से प्रकट हुई। शाहजहाँ की वैभवप्रियता, विलासलिप्सा और प्रदर्शन प्रवृत्ति का तत्कालीन सामन्तीय जीवन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। परिणाम यह हुआ कि ऐसे विलासितापूर्ण वातावरण तथा महलों में लगने वाले रूप बाजार का प्रभाव सामान्य जीवन पर भी पड़ा। संस्कृति का पतन होने लगा, पौरुष और मनोबल का ह्रास होने लगा और व्यक्ति का बौद्धिक स्तर गिर गया था। छोटे-छोटे सामन्त भी अनेक रखैल रखने लगे। एक पत्नी रखना समृद्धि का सूचक नहीं था। जनता में अन्धविश्वास ने जड़ें जमा रखी थीं। अधिकांश जनता अशिक्षित थी। उसमें अच्छा-बुरा सोचने की शक्ति ही नहीं थी। धर्म के स्थान पर रूढियाँ काम में ली जाने लगी थीं। बाल विवाहों की प्रथा बढ गयी थी। सुन्दर दासियों की माँग बढ़ गयी थी। जगीरदारों से श्रमिक वर्ग पीड़ित था। कृषकों की जीवन सामग्री का अभाव रहता था। तात्पर्य यह है कि सामाजिक व्यवस्था की ओर से शासक वर्ग उदासीन हो गया था। ऐसे वातावरण में चाटुकारों और दरबारियों की संख्या बढ़ गयी थी। कवि अपने आश्रयदाता को प्रसन्न रखने के लिए सप्रयास कविता करते थे। परिणामस्वरूप कविता जनजीवन से दूर होती चली गयी।
(2) धार्मिक परिस्थितियाँ - रीतिकालीन साहित्य की सर्जना जिस युग में हुई वह धार्मिक दृष्टि से पतन का काल था। जिस युग में नैतिकता का पतन हो गया हो संस्कृति और सभ्यता का ह्रास हो गया हो और बौद्धिक स्तर गिर गया हो उस युग में धर्म का उदात्त रूप कैसे मिल सकता है? इस युग में रूढ़ियों, अन्धविश्वासों और बाह्याडम्बरों ने धर्म का स्थान ग्रहण कर लिया था। धर्म के नाम पर श्रृंगार प्रधान उपासना का प्रधान्य था। सूरदास जी ने जिन राधाकृष्ण को सूक्ष्म तथा साहित्य की दृष्टि से देखा था। वही इस युग में कामुका और लोलुप हो गये थे। तभी एक साहित्यकार कहते हैं, "उनके विलास के लिए जो साधन एकत्रित किये जाते थे, अवध के नवाब तक को उनमें ईर्ष्या होती थी या कुतुबशाह भी अपने अन्तःपुर में उनका अनुसरण करना गर्व की बात समझते थे। मन्दिरों और मठों में दैवदासियों का सौन्दर्य और उनके घुँघरूओं की झंकार, मठाधीशों की सेवा और मनोरंजन के लिए सदा प्रस्तुत रहती थी। सूक्ष्म आध्यात्मिकता की विकृति का स्थूलरूप वास्तव में धर्म के इतिहास में अन्धकारपूर्ण पृष्ठ है।'
कृष्ण के साथ-साथ राम का रूप भी बदल गया है। शक्तिशाली लोकरक्षक मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी नायक के समान काम-क्रीड़ा में रत रहने लगे थे। डॉ. शिवकुमार शर्मा ने तभी तो कहा है कि, "आदर्श की मूर्ति सती सीता अब एक विलास प्रिय सामान्य रमणी के रूप में चित्रित होने लगी। राधा और कृष्ण की आड़ में कामुकता की खुलकर अभिव्यक्ति हुई। यहाँ तक कि अगले जन्म में राधा में को अपना राधा नाम भी बदलना पड़े।' उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् यही कहा जा सकता है कि रीतिकाल का धर्म भी उसी युग के अनुकूल बना लिया गया था। राधा-कृष्ण और सीता-राम की काम-क्रीड़ाओं में रत रहने लगे।
(3) राजनैतिक परिस्थिति - राजनैतिक दृष्टि से यह काल भी घोर निराशा और अन्धकार का काल है। औरंगजेब के उत्तराधिकारियों ने केन्द्रीय शासन को जीर्ण-शीर्ण बना दिया था परिणामतः समस्त प्रदेशों में शासक स्वच्छन्द तथा स्वेच्छाचारी हो गये। शासकों की उदासीनता के कारण राज्य पर अनेक आक्रमण हुए जिससे मुगल शासन की रीढ़ की हड्डी टूट गयी। समय का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने शाह आलम को पराजित कर दिया और शासन सत्ता अपने हाथ में ले ली। मुगल शासक अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गये। सम्राज जहाँदारशाह के बारे में कहा जाता है कि वह अपने हाथ में दर्पण और कंघा हर समय रखता था और अपने केशों को ही संवारता रहता था। साथ ही यह भी कहा जाता है कि वह लाल कुँवरि वैश्या का पुजारी था। यहाँ तक कि राज्य कार्यों को उसी की सलाह से सम्पन्न किया जाता था। उसके सगे सम्बन्धियों को उच्चाधिकारी बना दिया गया था जिससे जन सामान्य पर मनमाने अत्याचार होने लगे थे। इसी स्थिति का अवलोकन करके एक प्रसिद्ध इतिहासकार ने लिखा है कि, "गिद्धों के नीडो में उल्लू रहते थे। उन्हें यहाँ भी वेश्याओं और रखैलों की कमी नहीं थी। इनकी विलासितापूर्ण वृत्ति मुगलों की होड़ करने में वैसा ही उस युग का साहित्य बन गया। उसमें भी श्रृंगार की चरमस्थिति और विलासिता के दर्शन होने लगे थे। ऐसे राजनैतिक परिवेश में ही रीतिकालीन साहित्य का जन्म हुआ था।
(4) सांस्कृतिक पृष्ठभूमि - सामाजिक अवस्था की भाँति इस युग में सांस्कृतिक स्थिति भी अत्यन्त दयनीय हो गयी थी। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ की उदारतावादी नीति तथा सन्तों और सूफियों के उपदेशों के परिणामस्वरूप हिन्दू और इस्लामी संस्कृतियाँ काफी निकट तो आ गयीं थीं, किन्तु औरंगजेब की कट्टरता के कारण यह निकटता समाप्त हो चली थी। इतनी ही नहीं विलास और वैभव का खुला प्रदर्शन होने लगा था और ऐसी स्थिति में धार्मिक और नैतिक प्रतिमान शिथिल हो गये थे या होते जा रहे थे। स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी थी कि हिन्दू अपने आराध्य राम और कृष्ण का श्रृंगार ही नहीं करने लगे थे किन्तु उनकी लीलाओं में अपने विलासी जीवन के तत्व भी खोजने लगे थे। दूसरी ओर इस्लाम धर्म पर इस विलास और वैभव की सीधा प्रभाव पड़ता जा रहा था। परिणामस्वरूप हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्म के मूलभूत प्रश्नों से अलग होते जा रहा थे। डॉ. महेन्द्र कुमार ने लिखा है कि, "केवल बाह्य आचरण ही धर्म-पालन रह गया था। ऐसी दशा में धर्म के साथ नैतिकता का जो सम्बन्ध जुड़ा हुआ है उससे सम्पन्न वर्ग एकदम दूर हो गया था और विलासिता के लिए खुली छूट मिल गयी थी। इधर विलास के साधनों से हीनवर्ग के बीच स्थिति यह हो चली थी कि कर्म और आचार के स्थान पर अन्धविश्वास ने उसके भीतर इतना घर कर लिया था कि हिन्दू मन्दिरों में तथा मुसलमान पीरों के तकियों पर जाकर मनोरथ सिद्ध करने लगे थे। यह ठीक है कि इस पुरानी परम्परा के सूफी तथा सन्त अब भी विद्यमान थे पर किसी में कबीर, नानक तथा जायसी जैसा व्यक्तित्व और प्रतिभा नहीं थी जो जन-जीवन को प्रभावित कर सकती।"
(5) साहित्य एवं कलाओं की स्थिति - साहित्य और कला की दृष्टि से इस युग को काफ उन्नत और समृद्ध कहा जा सकता है। इस काल के कवि और कलाकार यद्यपि साधारण युग सम्बन्धित होते थे तब भी अपने आश्रयदाताओं से प्रतिष्ठा और सम्मान पाकर महत्वपूर्ण बन जाते कवि लोग आश्रयदाताओं की वासना को उत्तेजित करने के लिए घोर शृंगारी रचना लिखा करते थे। जहाँ तक ललित कलाओं का सम्बन्ध है, इनमें चित्रकला काव्य के समान ही समृद्ध थी। जहाँगीर का राजत्वकाल गुण और परिणाम के कारण यद्यपि इस काल को स्वर्णकाल कहा जाता है तो उसके बाद उसकी समृद्धि में कमी नहीं आयी। शाहजहाँ भी अलंकार प्रिय था। वह नेिन्न राजकीय क्रिया-कलापों में चित्रकला और साज-सजावट को महत्व देता था। औरंगजेब के बाद भी परवर्ती मुगल शासकों के प्रश्रय में ये कलाएँ विकास पाती रहीं हैं। राजस्थानी शैली और कांगड़ा शैली के अनेक चित्र इस युग में प्रचलित थे। संक्षेप में इस युग में चित्रकला राजसी ठाट-बाट तथा जन- जीवन दोनों को सम्यक् रूप से लेकर चली है। इस युग के कवियों द्वारा रचित राजप्रशस्तियाँ तथा शृंगारिक रचनाएँ क्रमशः इन दोनों प्रवृत्तियों के चित्रों के समानान्तर कही जा सकती हैं।
स्थापत्य कला और संगीत कला भी इस युग में पर्याप्त समृद्ध थीं। ये दोनों अधिक खर्चीली और प्रयत्नसाध्य कलाएँ थीं, अतः इनका क्षेत्र जन जीवन से हटकर केवल राज्याश्रयों तक ही सीमित हो गया था। शाहजहाँ संगीत का शौकीन था, किन्तु उसकी रुचि स्थापत्य कला में अधिक थी। आगरे का ताज, दिल्ली का दीवाने खास, उसकी स्थापत्य प्रियता के उदाहरण हैं। डॉ. महेन्द्र : कुमार ने लिखा है कि, "इस काल मे कवियों और कलाकारों ने राजाश्रयों में यथोचित सम्मान प्राप्त होने के कारण साहित्य और कला की स्थिति कुल मिलाकर अच्छी ही रही। परिणाम की दृष्टि से इन दोनों का क्षेत्र सर्वाधिक समृद्ध कहा जा सकता है किन्तु अलंकार प्रिय विलासी आश्रयदाताओं की अभिरुचि से अत्यधिक प्रभावित रहने के कारण इनमें से किसी का भी क्षेत्र गुण की दृष्टि से. विशद न हो सका। कदाचित इस काल के स्थापत्य एकरूपता को प्रकट करने के कारण शिल्प व्यापार मात्र ही प्रतीत नहीं होता, चित्र काव्य और संगीत जैसी सूक्ष्म कलाएँ भी कल्पना - जन्य वैविध्य की न्यूनता के कारण कला की सीमाओं से दूर पड़ जाती हैं।"
अतः यही कहना उचित होगा कि रीतिकालीन समाज पतोन्मुख था और शासकों को शासन और जनजीवन को देखने की फुरसत नहीं थी। राज्य कार्यों में वेश्याओं की राय ली जाती थी, धर्म और संस्कृति के स्थान पर रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का बोल-बाला था। राधा-कृष्ण और राम- सीता का सहारा लेकर घोर शृंगार वर्णन किये जाते थे। ऐसी परिस्थितियों में रीतिकालीन साहित्य लिखा गया वह कैसा होगा, वह स्वयंसिद्ध है।
(6) रीतिकाल की सीमाएँ - रीतिकाल की सीमाओं से तात्पर्य यह है कि यह काल किन- किन सीमाओं से आबद्ध रहा है। वास्तविकता यह है कि रीतिकाल, समय की दृष्टि से संवत् 1700 से 1900 ई. तक की सीमा में बँधा हुआ है। समय सम्बन्धी इस सीमा के विषय से कोई विवाद हमें नहीं दिखाई देता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाव्य की यही सीमा स्वीकार की है। कुछ लोगों की मान्यता है कि जिस युग में रीति निरूपण अथवा रीति प्रभावित ग्रन्थों के निर्माण की प्रतियोगिता रही, उसका समय 1700 से 1900 तक है। इन निश्चित संवतों को स्वीकार करने में कुछ लोगों को आपत्ति है। इसका कारण यह है कि रीति कवियों के कुछ ग्रन्थ इस सीमा के आगे-पीछे रचे जाते हैं। उदाहरण के लिए चिन्तामणि कृत रस विलास और मतिराम कृत रसराज सन् 1643 में दस वर्ष पूर्व तथा ग्वाल कवि की 'रसरंग आदि रचनाएँ 1843 ई. लगभग 15 वर्ष बाद की ठरहती हैं। कुछ ऐसे कवि भी हैं जिनका जन्म भक्तिकाल में हुआ किन्तु रचनाएँ रीतकाल में लिखी गयी हैं। ऐसी स्थिति में रीतिकाल की सीमाएँ हमें सामान्य रूप से 17वीं शताब्दी के मध्य से 19वीं शताब्दी के मध्य तक मान लेनी चाहिए।
जहाँ तक विषय सम्बन्धी सीमा का प्रश्न है वह भी स्पष्ट है। इस काल का विषय प्रमुखतः श्रृंगार रहा है। भाव और रस की दृष्टि से यह काल घोर शृंगार का काल है और सभी कवि कमोवेश रूप में इसी सीमा में विचरण करते रहे हैं। कला शिल्प की दृष्टि से अलंकारप्रियता, छन्दप्रियता और शैली चमत्कार को इन कवियों ने विशेष महत्व दिया है। शृंगार और चमत्कार प्रदर्शन ये दोनों ही इस काल की सीमाएँ हैं। इन दोनों सीमाओं में सिमटकर जो रीतिकालीन साहित्य लिखा गया है, वह अपवाद स्वरूप ही, श्रृंगारिक विषयों की ओर मुड़ा है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य का रीतिकालीन तत्कालीन राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक व कलात्मक परिस्थितियों की उपज है। इन परिस्थितियों से प्रेरित होकर जो शृंगार और कलात्मक साहित्य लिखा गया है उसे हम रीतिकालीन काव्य अथवा रीतिकाव्य के नाम से अभिहित करते हैं।
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- प्रश्न- इतिहास क्या है? इतिहास की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का संक्षेप में परिचय देते हुए आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन में योगदान की समीक्षा कीजिए।
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- प्रश्न- रासो ग्रन्थ की प्रामाणिकता पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए -
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- प्रश्न- गोस्वामी तुलसीदास के जीवन चरित्र एवं रचनाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- कबीर की भाषा 'पंचमेल खिचड़ी' है। सउदाहरण स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- निर्गुण भक्ति शाखा एवं सगुण भक्ति काव्य का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक पृष्ठभूमि की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन कवियों के आचार्यत्व पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन प्रमुख प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिए तथा तत्कालीन परिस्थितियों से उनका सामंजस्य स्थापित कीजिए।
- प्रश्न- रीति से अभिप्राय स्पष्ट करते हुए रीतिकाल के नामकरण पर विचार कीजिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन हिन्दी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों या विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दीजिए कि प्रत्येक कवि का वैशिष्ट्य उद्घाटित हो जाये।
- प्रश्न- आचार्य केशवदास का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- रीतिबद्ध काव्यधारा और रीतिमुक्त काव्यधारा में भेद स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- रीतिकाल की सामान्य विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- रीतिमुक्त कवियों की विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- रीतिकाल के नामकरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन साहित्य के स्रोत को संक्षेप में बताइये।
- प्रश्न- रीतिकालीन साहित्यिक ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- रीतिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- बिहारी के साहित्यिक व्यक्तित्व की संक्षेप मे विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन आचार्य कुलपति मिश्र के साहित्यिक जीवन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन कवि बोधा के कवित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- रीतिकालीन कवि मतिराम के साहित्यिक जीवन पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- सन्त कवि रज्जब पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- आधुनिककाल की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, सन् 1857 ई. की राजक्रान्ति और पुनर्जागरण की व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- द्विवेदी युग की छः प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- द्विवेदीयुगीन भाषा व कलात्मकता पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- छायावाद का अर्थ और स्वरूप परिभाषित कीजिए तथा बताइये कि इसका उद्भव किस परिवेश में हुआ?
- प्रश्न- छायावाद के प्रमुख कवि और उनके काव्यों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- छायावादी काव्य की मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- छायावादी रहस्यवादी काव्यधारा का संक्षिप्त उल्लेख करते हुए छायावाद के महत्व का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- छायावादी युगीन काव्य में राष्ट्रीय काव्यधारा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- 'कवि 'कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जायें। स्वच्छन्दतावाद या रोमांटिसिज्म किसे कहते हैं?
- प्रश्न- छायावाद के रहस्यानुभूति पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- छायावादी काव्य में अभिव्यक्त नारी सौन्दर्य एवं प्रेम चित्रण पर टिप्पणी कीजिए।
- प्रश्न- छायावाद की काव्यगत विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- छायावादी काव्यधारा का क्यों पतन हुआ?
- प्रश्न- प्रगतिवाद के अर्थ एवं स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रगतिवाद के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा साहित्यिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- प्रयोगवाद के नामकरण एवं स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए इसके उद्भव के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- प्रयोगवाद की परिभाषा देते हुए उसकी साहित्यिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'नयी कविता' की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- समसामयिक कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का समीक्षात्मक परिचय दीजिए।
- प्रश्न- प्रगतिवाद का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- प्रगतिवाद की पाँच सामान्य विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- प्रयोगवाद का क्या तात्पर्य है? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- प्रयोगवाद और नई कविता क्या है?
- प्रश्न- 'नई कविता' से क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- प्रयोगवाद और नयी कविता के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- समकालीन हिन्दी कविता तथा उनके कवियों के नाम लिखिए।
- प्रश्न- समकालीन कविता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।