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बीए सेमेस्टर-3 शिक्षाशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2653
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 शिक्षाशास्त्र

अध्याय - 8

स्वामी विवेकानन्द

(Swami Vivekanand)

 

प्रश्न- शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्यों, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन की व्याख्या कीजिए।

अथवा
विवेकानन्द के शैक्षिक विचारों पर प्रकाश डालिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. स्वामी विवेकानन्द के जीवन दर्शन एवं शिक्षा दर्शन को स्पष्ट कीजिए।
2. स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा का अर्थ बताइए।
3. स्वामी विवेकानन्द के द्वारा प्रतिपादित पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि को स्पष्ट कीजिए।
4. स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचारों की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर -

स्वामी विवेकानन्द भारतवर्ष के अमर सपूतों में से एक हैं। उनकी आध्यात्मिकता की गहराई तथा सम्पूर्ण मानवमात्र के प्रति उनका प्रेम हमारे देश की धरोहर है। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनके विचारों में उनकी मानवता के प्रति प्रेम तथा आध्यात्म की भावनायें दृष्टिगोचर होती हैं।

स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन के पण्डित और अद्वैत वेदान्त के पोषक थे। ये वेदान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए प्रसिद्ध हैं। इनके दार्शनिक विचार सैद्धान्तिक रूप में इनके द्वारा विचरित पुस्तकों में पढ़े जा सकते हैं और इनका व्यावहारिक रूप रामकृष्ण मिशन के जन कल्याणकारी कार्यों में देखा जा सकता है। स्वामी जी अपने देशवासियों की अज्ञानता और निर्धनता, इन दो से बहुत चिन्तित थे और इन्हें दूर करने के लिए इन्होंने शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया था। ये अपने और अपने साथियों को केवल वेदान्त के प्रचार में ही नहीं लगाए रहे, इन्होंने जन शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार में भी बड़ा योगदान दिया है। भारतीय शिक्षा को भारतीय स्वरूप प्रदान करने के लिए ये सदैव स्मरण किये जायेंगे।

जीवन-दर्शन
(Philosophy of Life)

(1) स्वामी विवेकानन्द सृष्टि के कर्त्ता ब्रह्म को मानते थे, किन्तु वे माया और जगत को भी सत्य मानते थे। भला सत्य से असत्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?
(2) उनके अनुसार, ज्ञान के दो रूप हैं-वस्तु जगत का ज्ञान तथा आत्म तत्त्व का ज्ञान। मनुष्य को इन दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करना चाहिये।
(3) स्वामी जी मानव मात्र की सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानते थे।
(4) उनके अनुसार, मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति, ईश्वर प्राप्ति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति है।
(5) आत्मानुभूति के लिये ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्तियोग आवश्यक है।
(6) योग इसी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति की सर्वोत्तम विधि है।
(7) ध्यान के लिये इन्द्रियनिग्रह एवं नैतिक विकास आवश्यक है।
(8) वे मनुष्य के उद्यमी, निर्भय और वीर बनने पर बल देते थे। उन्हीं के शब्दों में, “वीर बनो हमेशा कहो, मैं निर्भय हूँ सबसे कहो- डरो मत, भय मृत्यु है, भय पाप है, भय नर्क है, भय अधार्मिकता है तथा भय का जीवन में कोई स्थान नहीं हैं। "
(9) स्वामी जी ने मनुष्य को आगे बढ़ते रहने के लिये निरन्तर संघर्ष करते रहने का आह्वान किया। उन्होंने विभिन्न सिद्धान्तों में समन्वय पर भी बल दिया है।

शिक्षा दर्शन
(Educational Philosophy)

(1) स्वामी विवेकानन्द मैकॉले द्वारा प्रचारित तत्कालीन अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति को सही नहीं मानते थे क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य मात्र बाबुओं की संख्या बढ़ाना था।

(2) स्वामी जी भारत में ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे व्यक्ति चरित्रवान बने, साथ में आत्म-निर्भर भी बने। उन्हीं के शब्दों में, "हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। "

(3) स्वामी जी सैद्धान्तिक शिक्षा की तुलना में व्यावहारिक शिक्षा पर बल देते थे। उन्हीं के शब्दों में, "तुमको कार्य के सब क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों में सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।

शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त
(Basic Principles of Educational Philosophy)

(1) शिक्षा ऐसी हो जिससे व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास हो सके।
(2) शिक्षा ऐसी हो जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो तथा व्यक्ति आत्म-निर्भर बने।
(3) बालकों के समान ही बालिकाओं को भी शिक्षा दी जानी चाहिये।
(4) धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों से नहीं वरन् व्यवहार, आचरण एवं संस्कारों के माध्यम से दी जानी चाहिए।
(5) पाठ्यक्रम में सांसारिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विषय रखे जाने चाहिये।
(6) शिक्षा गुरुगृह में ही प्राप्त की जा सकती है।
(7) शिक्षक तथा छात्र में आदर तथा गरिमामय सम्बन्ध होने चाहिए।
(8) सभी को शिक्षित करने का प्रयास करना चाहिए।
(9) नारी शिक्षा का केन्द्र धर्म होना चाहिए।
(10) देश की औद्योगिक प्रगति के लिये प्राविधिक शिक्षा का विस्तार करना चाहिए।

शिक्षा का अर्थ
(Meaning of Education)

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, शिक्षा का अर्थ मनुष्य में छिपी हुई सभी शक्तियों का पूर्ण विकास है, न कि केवल सूचनाओं का संग्रह है। उनके अनुसार, “यदि शिक्षा का अर्थ सूचनाओं से होता, तो पुस्तकालय संसार के सर्वश्रेष्ठ संत होते तथा विश्वकोष ऋषि बन जाते।" उनके अनुसार, “शिक्षा उस सन्निहित पूर्णता का प्रकाश है, जो मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है। "

स्वामी जी शिक्षा के द्वारा मनुष्य को लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवनों के लिए तैयार करना चाहते थे। इनका विश्वास था कि जब तक हम भौतिक दृष्टि से सम्पन्न एवं सुखी नहीं होते तब तक ज्ञान, कर्म, भक्ति और योग, ये सब कल्पना की वस्तु है। लौकिक दृष्टि से इन्होंने नारा दिया- 'हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिसके द्वारा चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य स्वावलम्बी बनें। परन्तु मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य ये अपने अन्दर छिपी आत्मा (पूर्णता) की अनुभूति ही मानते थे। पारलौकिक दृष्टि से इन्होंने उद्घोषणा की 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।

विवेकानन्द के शिक्षा के उद्देश्य

स्वामी विवेकानन्द मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों रूपों को वास्तविक मानते थे, सत्य मानते थे। इसलिए मनुष्य के दोनों पक्षों के विकास पर बल देते थे। स्वामी जी ने शिक्षा के जिन - उद्देश्यों पर बल दिया है उन्हें हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं.

1. शारीरिक विकास - स्वामी जी भौतिक जीवन की रक्षा एवं उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति और आत्मानुभूति दोनों के लिए स्वस्थ शरीर की आवश्यकता समझते थे। भौतिक दृष्टि से इन्होंने कहा कि इस समय हमें ऐसे बलिष्ट आत्मानुभूति के लिए इन्होंने ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग अथवा राज योग को आवश्यक बताया और इनमें से किसी भी प्रकार के योग साधन के लिए स्वस्थ शरीर की आवश्यकता स्पष्ट की। इनकी दृष्टि से शिक्षा द्वारा सर्वप्रथम मनुष्य का शारीरिक विकास ही किया जाना चाहिए।

2. मानसिक एवं बौद्धिक विकास - स्वामी जी ने भारत के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण उसके बौद्धिक पिछड़ेपन को बताया और इस बात पर बल दिया है कि हमें अपने बच्चों का मानसिक एवं बौद्धिक विकास करना चाहिए और इसके लिए उन्हें आधुनिक संसार के ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराना चाहिए, जहाँ से जो भी अच्छा ज्ञान एवं कौशल मिले उसे प्राप्त कराना चाहिए और उन्हें संसार में आत्मविश्वास के साथ खड़े होने की सामर्थ्य प्रदान करनी चाहिए।

3. समाज सेवा की भावना का विकास - स्वामी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पढ़-लिखने का अर्थ यह नहीं कि अपना ही भला किया जाए, मनुष्य को पढ़-लिखने के बाद मनुष्य मात्र की भलाई करनी चाहिए। इन्होंने भारत की जनता की दरिद्रता को स्वयं अपनी आँखों से देखा था। ये चाहते थे कि पढ़े-लिखे और सम्पन्न लोग दीन-हीनों की सेवा करें, उन्हें ऊँचा उठाने के लिए प्रयत्न करें, समाज सेवा करें। समाज सेवा से इनका तात्पर्य दया या दान से नहीं था, समाज सेवा से इनका तात्पर्य दीन-हीनों के उत्थान में सहयोग करने से था, उठेंगे तो वे स्वयं ही। ये शिक्षा द्वारा ऐसे समाज सेवियों की टीम तैयार करना चाहते थे। ये आध्यात्मिक दृष्टि से भी समाज सेवा को बहुत महत्व देते थे। ये मनुष्य को ईश्वर का मन्दिर मानते थे और उसकी सेवा को ईश्वर की सेवा मानते थे।

4. नैतिक एवं चारित्रिक विकास - स्वामी जी ने यह बात अनुभव की कि शरीर से स्वस्थ, बुद्धि से विकसित और अर्थ से सम्पन्न होने के साथ-साथ मनुष्य को चरित्रवान भी होना चाहिए। चरित्र ही मनुष्य को सत्यनिष्ठ बनाता है, कर्तव्यनिष्ठ बनाता है। इसलिए इन्होंने शिक्षा द्वारा मनुष्य के नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर भी बल दिया। नैतिकता से इनका तात्पर्य सामाजिक नैतिकता और धार्मिक नैतिकता दोनों से था और चारित्रिक विकास से तात्पर्य ऐसे आत्मबल के विकास से था जो मनुष्य को सत्य मार्ग पर चलने में सहायक हो और उसे असत्य मार्ग पर चलने से रोके। इनका विश्वास था कि ऐसे नैतिक एवं चरित्रवान मनुष्यों से ही कोई समाज अथवा राष्ट्र आगे बढ़ सकता है, ऊँचा उठ सकता है।

5. व्यावसायिक विकास - स्वामी जी ने भारत की दरिद्र जनता को बड़े निकट से देखा था, उनके शरीर से झाँकती हुई हड्डियों को रोटी, पड़े और मकान की मांग करते हुए देखा था। साथ ही इन्होंने पाश्चात्य देशों के वैभवशाली जीवन को भी देखा था और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि उन देशों ने यह भौतिक सम्पन्नता ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी के विकास और प्रयोग से प्राप्त की है। अतः इन्होंने उद्घोष किया कि कोरे आध्यात्मिक सिद्धान्तों से जीवन नहीं चल सकता, हमें कर्म के हर क्षेत्र में आगे आना चाहिए। इसके लिए इन्होंने शिक्षा द्वारा मनुष्यों को उत्पादन एवं उद्योग कार्यों तथा अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षित करने पर बल दिया।

6. राष्ट्रीय एकता एवं विश्वबन्धुत्व का विकास - स्वामी जी के समय हमारा देश अंग्रेजों के अधीन था, हम परतन्त्र थे। स्वामी जी ने अनुभव किया कि परतन्त्रता हीनता को जन्म देती है और हीनता हमारे सारे दुःखों का सबसे बड़ा कारण है। अतः जब ये अमरीका से भारत लौटे तो इन्होंने भारत की भूमि पर पैर रखते ही युवकों का आह्वान किया- 'तुम्हारा सबसे पहला कार्य देश को स्वतन्त्र कराना होना चाहिए और इसके लिए जो भी बलिदान करना पड़े, उसके लिए तैयार होना चाहिए। इन्होंने उस समय ऐसी शिक्षा की व्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया जो देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करे, उन्हें संगठित होकर देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत करे। परन्तु ये संकीर्ण राष्ट्रीयता के हामी नहीं थे। ये तो सब मनुष्यों में उस परमात्मा के दर्शन करते थे और इस दृष्टि से विश्वबन्धुत्व में विश्वास करते थे।

7. धार्मिक शिक्षा एवं आध्यात्मिक विकास - स्वामी जी शिक्षा द्वारा मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षों के विकास पर समान बल देते थे। इनका स्पष्ट मत था कि मनुष्य का भौतिक विकास आध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि में होना चाहिए और उसका आध्यात्मिक विकास भौतिक विकास के आधार पर होना चाहिए और ऐसा तभी सम्भव है जब मनुष्य धर्म का पालन करे। धर्म को स्वामी जी . उसके व्यापक रूप में लेते थे। इनकी दृष्टि से धर्म वह है जो हमें प्रेम सिखाता है और द्वेष से बचाता है, हमें मानवमात्र की सेवा में प्रवृत्त करता है और मानव के शोषण से बचाता है और हमारे भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विकास में सहायक होता है। स्वामी जी मनुष्य को प्रारम्भ से ही ऐसे धर्म की शिक्षा देने पर बल देते थे। इनकी दृष्टि से ये सब गुण हमारे अद्वैत वेदान्त धर्म में है, यह संसार में एकत्व भाव की अनुभूति कराता है और सबसे प्रेम करना सिखाता है। यह सार्वभौमिक धर्म है। इनकी दृष्टि से संसार के अन्य धर्म की कुछ ऐसी ही शिक्षाएँ देते हैं पर उन सबमें हमारा भारतीय वेदान्त धर्म सर्वश्रेष्ठ है। अतः हमें प्रारम्भ से ही उसकी शिक्षा देनी चाहिए। साथ ही बच्चों को जीवन के अन्तिम उद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रारम्भ से ही ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग अथवा राज योग की ओर उन्मुख करना चाहिए। इनकी दृष्टि से वास्तविक शिक्षा वही है जो मनुष्य को भौतिक जीवन जीने के लिए और आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करने के लिए तैयार करती हैं।

शिक्षा की पाठ्यचर्या के सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द के विचार

पाठ्यचर्या तो उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन होती है। स्वामी जी ने अपने द्वारा निश्चित शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु एक विस्तृत पाठ्यचर्या का विधान प्रस्तुत किया। इन्होंने शिक्षा की पाठ्यचर्या में मनुष्य के शारीरिक विकास हेतु खेल-कूद, व्यायाम और यौगिक क्रियाओं और मानसिक एवं बौद्धिक विकास हेतु भाषा, कला, संगीत, इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणित और विज्ञान विषयों को स्थान देने पर बल दिया। भाषा के सन्दर्भ में स्वामी जी का दृष्टिकोण बड़ा विस्तृत था। इनकी दृष्टि से अपने सामान्य जीवन के लिए मातृभाषा, अपने धर्म दर्शन को समझने के लिए संस्कृत भाषा, अपने देश को समझने के लिए प्रादेशिक भाषाओं और विदेशी ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी को समझने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक है अतः इन भाषाओं को पाठ्यक्रम में स्थान देना चाहिए। कला को ये मनुष्य जीवन का अभिन्न अंग मानते थे और इसके अन्तर्गत चित्रकला, वास्तुकला, संगीत, नृत्य और अभिनय सभी को पाठ्यक्रम में स्थान देने के पक्ष में थे। इतिहास के अन्तर्गत ये भारत और यूरोप दोनों के इतिहास को पढ़ाने के पक्ष में थे। इनका तर्क था कि भारत का इतिहास पढ़ने से बच्चों में रवदेश प्रेम विकसित होगा और यूरोप का इतिहास पढ़ने से वे भौतिक को प्राप्त करने के लिए कर्मशील होंगे। इन्होंने राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र को पाठ्यचर्या में स्थान देने पर भी बल दिया। इनका विश्वास था कि इन दोनों विषयों के अध्ययन से बच्चों में राजनैतिक चेतना जागृत होगी और वे आर्थिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करेंगे। मनुष्यों में समाज सेवा का भाव उत्पन्न करने और उन्हें समाज सेवा की ओर उन्मुख करने के लिए स्वामी जी ने शिक्षा के सभी स्तरों पर समाज सेवा को अनिवार्य करने पर बल दिया उनके नैतिक एवं चारित्रिक विकास हेतु धर्म एवं नीतिशास्त्र की शिक्षा को अनिवार्य करने पर बल दिया। व्यावसायिक विकास हेतु मातृ भाषा, अंग्रेजी भाषा, भौतिक विज्ञान, कृषि विज्ञान, तकनीकी और उद्योग कौशल की शिक्षा पर बल दिया और उनके आध्यात्मिक विकास हेतु साहित्य, धर्म दर्शन और नीतिशास्त्र विषयों तथा भजन, कीर्तन, सत्संग और ध्यान की क्रियाओं को स्थान देने पर बल दिया।

स्वामी जी ने देश में उच्च शिक्षा की व्यवस्था करने और उसके द्वारा अपने ही देश में इंजीनियरों, डाक्टरों, वकीलों और प्रशासकों आदि की शिक्षा की व्यवस्था करने पर भी बल दिया। ये जानते थे कि जब तक हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं हो जाते तब तक हम न भौतिक उन्नति कर सकते हैं और न आध्यात्मिक। इन्होने शिक्षाविदों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि देश-विदेश में, जहां जो अच्छा है, लाभकारी है, हमारे समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए आवश्यक है, उसे उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाए। इस प्रकार शिक्षा की पाठ्यचर्या के सम्बन्ध में स्वामी जी का दृष्टिकोण अति व्यापक था और क्यों न होता, इन्होंने अपने देश के उच्चतम धर्म-दर्शन को पढ़ा और समझा था और पाश्चात्य जगत के भौतिक वैभव को अपनी आँखों से देखा था। ये जानते थे कि पाश्चात्य जगत के भौतिक ज्ञान से हम अपना भौतिक विकास कर सकते हैं और अपने देश के आध्यात्मिक ज्ञान से अपना आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं। इस प्रकार शिक्षा की पाठ्यचर्या के सम्बन्ध में स्वामी जी का दृष्टिकोण अति आधुनिक और अति व्यापक था।

शिक्षण विधियों के सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द के विचार

स्वामी जी आत्मा की पूर्णता में विश्वास करते थे और यह मानते थे कि आत्मा सर्वज्ञ है। परन्तु यह तभी सम्भव है जब मनुष्य को स्वयं आत्मज्ञान हो, वह स्वयं आत्मदृष्टा हो। स्वामी जी के विचार से मनुष्य को आत्मज्ञान तभी होता है जब उसे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार का ज्ञान हो। स्वामी जी ने भौतिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष, अनुकरण, व्याख्यान, निर्देशन, विचार-विमर्श और प्रयोग विधियों का समर्थन किया है और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए स्वाध्याय, मनन, ध्यान और योग की विधियों का समर्थन किया है। इन्होंने अपने अनुभव के आधार पर यह बात बहुत बलपूर्वक कही कि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने की सर्वोत्तम विधि योग विधि ( एकाग्रता) है। स्वामी जी स्वयं शिक्षक थे। इन्होंने देश-विदेश में लोगों को वेदान्त की शिक्षा दी थी और उन्हें ध्यान क्रिया में प्रशिक्षित किया था। पर इन्होंने उपरोक्त सभी विधियों को कुछ अपने विशिष्ट रूप में प्रयोग किया था। अतः यहाँ इनके इस विशिष्ट रूप को समझना आवश्यक है।

1. अनुकरण विधि - स्वामी जी यह बात जानते थे कि मनुष्य प्रारम्भ में भाषा और व्यवहार की विधियाँ अनुकरण द्वारा ही सीखता है इसलिए इन्होंने शुद्ध भाषा और समाज सम्मत आचरण की शिक्षा के लिए इसे सर्वोत्तम विधि बताया। इन्होंने इस बात पर बल दिया कि माता-पिता और शिक्षकों को बच्चों के सामने शुद्ध भाषा का प्रयोग करना चाहिए और आचरण के उच्च आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए जिनका अनुकरण कर बच्चे शुद्ध भाषा सीखें और उत्तम आचरण करें। खेल-कूद, व्यायाम, योगासन एवं अन्य कुछ क्रियाओं की शिक्षा के लिए भी ये इस विधि को उपयुक्त मानते थे। ये लोगों को योग की शिक्षा इसी विधि से देते थे।

2. व्याख्यान विधि - तथ्यों की जानकारी मौखिक रूप से देने की विधि को व्याख्यान विधि कहते हैं। स्वामी जी यह बात मानते थे कि पूर्वजों द्वारा खोजे सत्यों का ज्ञान व्याख्यान विधि द्वारा सरलता और शीघ्रता से कराया जा सकता है। परन्तु ये किसी भी तथ्य को विवेक की कसौटी पर कसकर स्वीकार करने पर बल देते थे। यही इनकी व्याख्यान विधि की विशेषता थी। ये वेदान्त के सिद्धान्तों की शिक्षा व्याख्यान विधि द्वारा ही देते थे पर तर्कपूर्ण ढंग से देते थे, वैज्ञानिक ढंग से देते थे।

3. तर्क एवं विचार - विमर्श विधि तथ्यों को सीधे ग्रहण न करके उनके विषय में "या' "यों', 'कैसे' प्रश्न करने, उनका तार्किक उत्तर प्राप्त करने, अपनी शंकाओं को बार-बार उठाने और उनका समाधान खोजने की विधि को तर्क एवं विचार-विमर्श विधि कहते हैं। यह तर्क विधि भारतीय न्याय दर्शन की तर्क विधि से भिन्न है। इस विधि से शिक्षक शिक्षार्थियों की शंकाओं का समाधान करते हैं। इस आधार पर कुछ विद्वान् इसे शंका-समाधान विधि भी कहते हैं। इस विधि में शिक्षक शिक्षार्थियों की शंकाओं के समाधान हेतु तथ्यों की व्याख्या करते हैं। इस आधार पर कुछ विद्वान् इसे व्याख्या विधि कहते हैं। तथ्यों की व्याख्या में तथ्यों का विश्लेषण करना पड़ता है। इस आधार पर कुछ विद्वान् इसे विश्लेषण विधि कहते हैं। स्वामी जी किसी भी तथ्य को स्पष्ट करने के लिए तर्कपूर्ण विचार-विमर्श करते थे इसलिए इन्होंने इस विधि को तर्क एवं विचार-विमर्श विधि कहा है।

4. निर्देशन और परामर्श विधि - वैयष्टिक निर्देशन और परामर्श द्वारा शिक्षार्थियों का मार्ग निर्देशन करने, उनकी स्वयं सीखने में सहायता करने और बीच-बीच में उनकी शंकाओं का समाधान करने की विधि को निर्देशन एवं परामर्श विधि कहते हैं। इस विधि में शिक्षक-शिक्षार्थियों की क्या पढ़ें और कैसे पढ़ें, क्या करें और कैसे करें, इस सम्बन्ध में सहायता करते हैं। इस विधि में शिक्षार्थी स्वाध्याय अथवा स्व क्रिया द्वारा स्वयं सीखते हैं, शिक्षक तो उनका केवल मार्गदर्शन करते हैं। स्वामी जी किशोर और युवकों की शिक्षा के लिए इस विधि को उत्तम विधि मानते थे।

5. प्रदर्शन एवं प्रयोग विधि - स्वामी जी प्रायोगिक विषयों-विज्ञान एवं तकनीकी और क्रियाओं के शिक्षण एवं प्रशिक्षण के लिए इस विधि के प्रयोग का समर्थन करते थे। इस विधि में शिक्षक वस्तु अथवा क्रिया को प्रस्तुत करात है, शिक्षार्थी अवलोकन करते हैं, शिक्षक हर तथ्य को स्पष्ट करता है, शिक्षार्थी उसे प्रयोग करके निश्चित करते हैं। आज तो इस विधि में बच्चों की सक्रिय साझेदारी ली जाती है। अपने सही अर्थों में विज्ञान आदि प्रायोगिक विषयों को शिक्षा इसी विधि में दी जा सकती है।

6. स्वाध्याय विधि - स्वाध्याय विधि का अर्थ है स्वयं अध्ययन करना। इस विधि में शिक्षार्थी तथ्यों का ज्ञान तत्सम्बन्धी पुस्तकों के अध्ययन द्वारा करते हैं। स्वामी जी अपने धर्म-दर्शन के ज्ञान के लिए आर्य ग्रन्थों के अध्ययन पर बल देते थे। ये कहा करते थे कि सब कुछ उपदेशों एवं व्याख्यानों द्वारा नहीं बताया जा सकता, किसी भी विषय के पूर्ण ज्ञान के लिए उससे सम्बन्धित प्रमाणिक ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक होता है। शिक्षार्थी द्वारा इन प्रमाणिक ग्रन्थों को स्वयं पढ़ना और स्वयं समझने का प्रयत्न करना ही स्वाध्याय विधि है। स्वाध्याय को स्वामी जी तब तक अधूरा मानते थे जब तक उस पर चिन्तन, मनन और निदिध्यासन नहीं किया जाए। इनका उद्घोष था कि किसी भी तथ्य को विवेक की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करो। इस प्रकार स्वामी जी द्वारा अनुमोदित स्वाध्याय विधि आज की पुस्तक विधि अथवा पुस्तकालय विधि से कुछ भिन्न है, कुछ अधिक है और कुछ अधिक उपयोगी है।

7. योग विधि - स्वामी जी इसे भौतिक एवं आध्यात्मिक किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने अथवा ज्ञान की खोज करने की सर्वोत्तम विधि मानते थे। इनकी दृष्टि से भौतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए अल्प योग (अल्पकालीन एकाग्रता) ही पर्याप्त होता है परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए पूर्ण योग (दीर्घकालीन एकाग्रता ) की आवश्यकता होती है। आज के मनोवैज्ञानिक भी तो यही कहते हैं कि ज्ञान प्राप्ति के लिए सीखे जाने वाली वस्तु अथवा क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है। हमारा अपना अनुभव भी यही बताता है कि सीखने वाले में सीखने के लिए जितना अधिक योग होता है, वह उतनी ही शीघ्रता से सीखता है। स्वामी विवेकानन्द तो बचपन से ही इस विधि का प्रयोग करते थे।

स्वामी विवेकानन्द की शैक्षिक विचारों की विशेषताएँ

स्वामी विवेकानन्द जी ने मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णत: की अभिव्यक्ति को शिक्षा माना है। स्वामी जी के अनुसार, शिक्षा जीवन संघर्ष की तैयारी है क्योंकि जो शिक्षा जीवन जीने की कला नहीं सिखाती जीवन को सम-विषय परिस्थितियों में अनुकूल आचरण करना नहीं सिखाती वह शिक्षा व्यर्थ है।

स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचारों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

(1) स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, अध्यापक का चरित्र अत्यन्त उच्च कोटि का होना चाहिए।

(2) स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, अध्यापक को विषय का ज्ञाता तो होना ही चाहिए साथ ही उसके अन्दर प्रेम, सहानुभूति, त्याग, निष्पक्षता की भावना का होना आवश्यक है।

(3) विद्यार्थियों के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द का विचार था कि अपने आपको पहचानो ज्ञान तो आपके अन्दर है उसे बाहर निकालो अपनी अन्तरात्मा को चेतन करो बिना इस सबकी बाह्य शिक्षण व्यर्थ है।

(4) स्वामी विवेकानन्द ने परोपकार तथा समाज सेवा को सर्वोपरि मानते हुए कहा है कि नर सेवा ही नारायण सेवा है।

(5) स्वामी विवेकानन्द ने दमनात्मक अनुशासन, का विरोध करके प्रभावात्मक अनुशासन पर बल दिया है।

(6) स्वामी विवेकानन्द ने आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही लौकिक समृद्धि को भी आवश्यक माना है। यही कारण है कि उन्होंने पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक विषयों के साथ-साथ लौकिक विषयों को भी समावेशित किया है।

(7) स्वामी विवेकानन्द ने मन की एकाग्रता पर विशेष जोर दिया है क्योंकि मन को एकाग्र किए बिना किसी भी शिक्षण विधि का प्रभाव स्वतः न्यून होता जाता है। यद्यपि उन्होंने अनुकरण विधि, विचार-विमर्श, उपदेश, परामर्थ वैयक्तिक निर्देशन विधियों को भी शिक्षण विधि के रूप में बताया है।

(8) स्वामी विवेकानन्द ने स्त्री को पुरुषों के समान स्थान देते हुए कहा है कि जिस देश में स्त्रियों का सम्मान व आदर नहीं होता वह देश कभी भी प्रगति नहीं कर सकता। स्त्रियों के उत्थान के सम्बन्ध में स्वामी जी ने कहा था कि- "पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो तब वे बताएँगी कि उनके लिए कौन-कौन से सुधार करने आवश्यक हैं। '

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- शिक्षा के संकुचित तथा व्यापक अर्थों की व्याख्या कीजिए।
  2. प्रश्न- शिक्षा की अवधारणा स्पष्ट कीजिए तथा शिक्षा की परिभाषा देते हुए इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  3. प्रश्न- शिक्षा के विभिन्न स्वरूपों की व्याख्या कीजिए। शिक्षा तथा साक्षरता एवं अनुदेशन में क्या मूलभूत अन्तर है?
  4. प्रश्न- शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की विवेचना कीजिए तथा इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय को समझाइए।
  5. प्रश्न- "दर्शन जिसका कार्य सूक्ष्म तथा दूरस्थ से रहता है, शिक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं रख सकता जिसका कार्य व्यावहारिक और तात्कालिक होता है।" स्पष्ट कीजिए।
  6. प्रश्न- निम्नलिखित को परिभाषित कीजिए तथा शिक्षा के लिए इनके निहितार्थ स्पष्ट कीजिए - (i) तत्व-मीमांसा, (ii) ज्ञान-मीमांसा, (iii) मूल्य-मीमांसा।
  7. प्रश्न- शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव बताइये।
  8. प्रश्न- अनुशासन को दर्शन कैसे प्रभावित करता है?
  9. प्रश्न- शिक्षा दर्शन से आप क्या समझते हैं? परिभाषित कीजिए।
  10. प्रश्न- वेदान्त दर्शन क्या है? वेदान्त दर्शन के सिद्धान्त बताइए।
  11. प्रश्न- वेदान्त दर्शन व शिक्षा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। वेदान्त दर्शन में प्रतिपादित शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या व शिक्षण विधियों की व्याख्या कीजिए।
  12. प्रश्न- वेदान्त दर्शन के शिक्षा में योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
  13. प्रश्न- वेदान्त दर्शन की तत्व मीमांसा ज्ञान मीमांसा एवं मूल्य मीमांसा तथा उनके शैक्षिक अभिप्रेतार्थ की व्याख्या कीजिये।
  14. प्रश्न- वेदान्त दर्शन के अनुसार शिक्षार्थी की अवधारणा बताइए।
  15. प्रश्न- वेदान्त दर्शन व अनुशासन पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- अद्वैत शिक्षा के मूल सिद्धान्त बताइए।
  17. प्रश्न- अद्वैत वेदान्त दर्शन में दी गयी ब्रह्म की अवधारणा व उसके रूप पर टिप्पणी लिखिए।
  18. प्रश्न- अद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार आत्म-तत्व से क्या तात्पर्य है?
  19. प्रश्न- गीता में नीतिशास्त्र की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- गीता में भक्ति मार्ग की महत्ता क्या है?
  21. प्रश्न- श्रीमद्भगवत गीता के विषय विस्तार को संक्षेप में समझाइये |
  22. प्रश्न- गीता के अनुसार कर्म मार्ग क्या है?
  23. प्रश्न- गीता दर्शन में शिक्षा का क्या अर्थ है?
  24. प्रश्न- गीता दर्शन के अन्तर्गत शिक्षा के सिद्धान्तों को बताइए।
  25. प्रश्न- गीता दर्शन में शिक्षालयों का स्वरूप क्या था?
  26. प्रश्न- गीता दर्शन तथा मूल्य मीमांसा को संक्षेप में बताइए।
  27. प्रश्न- गीता में गुरू-शिष्य के सम्बन्ध कैसे थे?
  28. प्रश्न- आदर्शवाद से आप क्या समझते हैं? आदर्शवाद के मूलभूत सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
  29. प्रश्न- आदर्शवाद और शिक्षा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। आदर्शवाद के शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- आदर्शवाद में शिक्षक की भूमिका को समझाइए।
  31. प्रश्न- आदर्शवाद में शिक्षार्थी का क्या स्थान है?
  32. प्रश्न- आदर्शवाद में विद्यालय की परिकल्पना कीजिए।
  33. प्रश्न- आदर्शवाद में अनुशासन को समझाइए।
  34. प्रश्न- आदर्शवाद के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
  35. प्रश्न- प्रकृतिवाद का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए। प्रकृतिवाद के रूपों एवं सिद्धान्तों को संक्षेप में बताइए।
  36. प्रश्न- प्रकृतिवाद और शिक्षा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएँ तथा उद्देश्य बताइए।
  37. प्रश्न- प्रकृतिवाद के शिक्षा पाठ्यक्रम और शिक्षण विधि की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- "प्रकृतिवाद आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में बाजी हार चुका है।" स्पष्ट कीजिए।
  39. प्रश्न- आदर्शवादी अनुशासन एवं प्रकृतिवादी अनुशासन की क्या संकल्पना है? आप किसे उचित समझते हैं और क्यों?
  40. प्रश्न- प्रकृतिवादी शिक्षण विधियों पर प्रकाश डालिये।
  41. प्रश्न- प्रकृतिवाद तथा शिक्षक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  42. प्रश्न- प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा क्या है?
  43. प्रश्न- प्रकृतिवाद की ज्ञान मीमांसा क्या है?
  44. प्रश्न- प्रकृतिवाद में शिक्षक एवं छात्र सम्बन्ध स्पष्ट कीजिये।
  45. प्रश्न- प्रकृतिवादी अनुशासन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  46. प्रश्न- शिक्षा की प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रमुख तत्वों की विवेचना कीजिए। शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम, शिक्षक तथा अनुशासन के सम्बन्ध में इनके विचारों को प्रस्तुत कीजिए।
  47. प्रश्न- प्रयोजनवादियों तथा प्रकृतिवादियों द्वारा प्रतिपादित शिक्षण विधियों, शिक्षक तथा अनुशासन की तुलना कीजिए।
  48. प्रश्न- प्रयोजनवाद का मूल्यांकन कीजिए।
  49. प्रश्न- प्रयोजनवाद तथा आदर्शवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  50. प्रश्न- शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य तथा शिक्षण-विधि सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालते हुए गाँधी जी के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- गाँधी जी के शिक्षा दर्शन तथा शिक्षा की अवधारणा के विचारों को स्पष्ट कीजिए। उनके शैक्षिक सिद्धान्त वर्तमान भारत की प्रमुख समस्याओं का समाधान कहाँ तक कर सकते हैं?
  52. प्रश्न- बुनियादी शिक्षा क्या है?
  53. प्रश्न- बुनियादी शिक्षा का वर्तमान सन्दर्भ में महत्व बताइए।
  54. प्रश्न- "बुनियादी शिक्षा महात्त्मा गाँधी की महानतम् देन है"। समीक्षा कीजिए।
  55. प्रश्न- गाँधी जी की शिक्षा की परिभाषा की विवेचना कीजिए।
  56. प्रश्न- शारीरिक श्रम का क्या महत्त्व है?
  57. प्रश्न- गाँधी जी की शिल्प आधारित शिक्षा क्या है? शिल्प शिक्षा की आवश्यकता बताते हुए इसकी वर्तमान प्रासंगिकता बताइए।
  58. प्रश्न- वर्धा शिक्षा योजना पर टिप्पणी लिखिए।
  59. प्रश्न- शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्यों, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  60. प्रश्न- स्वामी विवेकानन्द के अनुसार अनुशासन का अर्थ बताइए। शिक्षक, शिक्षार्थी तथा विद्यालय के सम्बन्ध में स्वामी जी के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  61. प्रश्न- स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में विवेकानन्द के क्या योगदान हैं? लिखिए।
  62. प्रश्न- जन-शिक्षा के विषय में स्वामी विवेकानन्द के विचार बताइए।
  63. प्रश्न- स्वामी विवेकानन्द की मानव निर्माणकारी शिक्षा क्या है?
  64. प्रश्न- डॉ. भीमराव अम्बेडकर के शिक्षा दर्शन पर प्रकाश डालिए।
  65. प्रश्न- डॉ. अम्बेडकर के शिक्षा दर्शन का क्या अभिप्राय है? बताइए।
  66. प्रश्न- जाति भेदभाव को खत्म करने के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
  67. प्रश्न- डॉ. अम्बेडकर की शिक्षा दर्शन की शिक्षण विधियाँ क्या हैं? बताइए। शिक्षक व शिक्षार्थी सम्बन्ध का वर्णन कीजिए।
  68. प्रश्न- प्रकृतिवाद के सन्दर्भ में रूसो के विचारों का वर्णन कीजिए।
  69. प्रश्न- मानव विकास की विभिन्न अवस्थाओं हेतु रूसो द्वारा प्रतिपादित शिक्षा योजना का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  70. प्रश्न- रूसो की 'निषेधात्मक शिक्षा' की संकल्पना क्या है? सोदाहरण समझाइए।
  71. प्रश्न- रूसो के प्रमुख शैक्षिक विचार क्या हैं?
  72. प्रश्न- जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन पर प्रकाश डालते हुए उनके द्वारा निर्धारित शिक्षा व्यवस्था के प्रत्येक पहलू को स्पष्ट कीजिए।
  73. प्रश्न- जॉन डीवी के उपयोगिता शिक्षा सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
  74. प्रश्न- आधुनिक शिक्षण विधियों एवं पाठ्यक्रम के निर्धारण में जॉन डीवी के योगदान का वर्णन कीजिए।
  75. प्रश्न- बहुलवाद से क्या तात्पर्य है? राज्य के विषय में बहुलवादियों के क्या विचार हैं?
  76. प्रश्न- बहुलवाद और बहुलसंस्कृतिवाद का क्या आशय है?
  77. प्रश्न- बहुलवाद, बहुलवादी शिक्षा से आपका क्या आशय है? इसकी विधियाँ बताइये।
  78. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  79. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया को बताइए।
  80. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों की विवेचना कीजिए।
  81. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में जाति, वर्ग एवं लिंग की भूमिका बताइए।
  82. प्रश्न- विद्यालय संगठन से आप क्या समझते हैं? विद्यालय संगठन का अर्थ, उद्देश्य एवं इसकी आवश्यकताओं पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- विद्यालय संगठन की परिभाषाए देते हुए विद्यालय संगठन की विशेषताओं का वर्णन करें।
  84. प्रश्न- विद्यालय संगठन एवं शैक्षिक प्रशासन में सम्बन्ध बताइए।
  85. प्रश्न- विद्यालय संगठन से आप क्या समझते हैं?
  86. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है? इनसे सम्बन्धित धारणाओं का वर्णन कीजिए।
  87. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के दृष्टिकोण से शिक्षा के प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  88. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तनों तथा शिक्षा के पारस्परिक सम्बन्धों को समझाइए |
  89. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में विद्यालय की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
  90. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में बाधा उत्पन्न करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
  91. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ बताइए।
  92. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के प्रारूप बताइए।
  93. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता से आप क्या समझते हैं? सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न कारक एवं शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
  94. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न रूपों का विवेचन कीजिए।
  95. प्रश्न- उच्चगामी गतिशीलता क्या है?
  96. प्रश्न- मौलिक अधिकारों का महत्व तथा अर्थ बताइये। मौलिक अधिकार व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
  97. प्रश्न- भारतीय नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकारों का मूल्यांकन कीजिए।
  98. प्रश्न- भारतीय संविधान के अधिकार पत्र की प्रमुख विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  99. प्रश्न- मानव अधिकारों की रक्षा के लिए किये गये विशेष प्रयत्न इस दिशा में कितने कारगर हैं? विश्लेषण कीजिए।
  100. प्रश्न- मौलिक अधिकार एवं मानव अधिकारों में अन्तर लिखिए।
  101. प्रश्न- भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के उल्लेख की आवश्यकता पर टिप्पणी लिखिए।
  102. प्रश्न- मौलिक अधिकार एवं नीति-निदेशक तत्वों में अन्तर बतलाइये।
  103. प्रश्न- विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर टिप्पणी लिखिए।
  104. प्रश्न- सम्पत्ति के अधिकार पर टिप्पणी लिखिए।
  105. प्रश्न- 'निवारक निरोध' से आप क्या समझते हैं?
  106. प्रश्न- क्या मौलिक अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है?
  107. प्रश्न- मौलिक कर्त्तव्य कौन-कौन से हैं? इनके महत्व पर प्रकाश डालिये।
  108. प्रश्न- नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों की प्रकृति तथा इनके महत्व का उल्लेख कीजिए।
  109. प्रश्न- 'अधिकार तथा कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस कथन की विवेचना कीजिए।
  110. प्रश्न- नागरिकों के मूल कर्तव्यों का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  111. प्रश्न- मौलिक कर्तव्यों का मूल्यांकन कीजिए।
  112. प्रश्न- नीति निदेशक तत्वों से आप क्या समझते हैं? संविधान में इनके उद्देश्य एवं महत्व का वर्णन कीजिए।
  113. प्रश्न- संविधान में वर्णित नीति निदेशक सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  114. प्रश्न- मौलिक अधिकारों तथा नीति निदेशक सिद्धान्तों में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिए।
  115. प्रश्न- नीति निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन की आलोचनात्मक व्याख्या अपने शब्दों में कीजिए।
  116. प्रश्न- नीति-निदेशक तत्वों का अर्थ बताइए।
  117. प्रश्न- राज्य के उन नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख कीजिये जिन्हें गांधीवाद कहा जाता है।
  118. प्रश्न- नीति निदेशक सिद्धान्तों का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  119. प्रश्न- नीति निदेशक तत्वों की प्रकृति अथवा स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
  120. प्रश्न- राष्ट्रीय विकास में शिक्षा की भूमिका को विस्तार से बताइए।
  121. प्रश्न- सतत् विकास के लिए शिक्षा से आप क्या समझते हैं? सतत् विकास में शिक्षा की अवधारणा और उत्पत्ति का वर्णन कीजिए।
  122. प्रश्न- सहस्राब्दी विकास लक्ष्य मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स का निर्धारण कौन-सा संस्थान करता है?
  123. प्रश्न- एमडीजी और एसडीजी के मध्य अन्तर बताइए।
  124. प्रश्न- ज्ञान अर्थव्यवस्था की राह पर विकास के संकेतक के रूप में शिक्षा को संक्षेप में बताइए। ज्ञान अर्थव्यवस्था के महत्व को भी बताइए।
  125. प्रश्न- शिक्षा के उद्देश्य को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
  126. प्रश्न- सतत् शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ एवं उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
  127. प्रश्न- सतत् शिक्षा के प्रमुख अभिकरण की व्याख्या कीजिए।
  128. प्रश्न- मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (MDGs) व सतत् विकास लक्ष्य (एसडीजी) क्या है? बताइए।

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