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बीए सेमेस्टर-3 शिक्षाशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2653
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 शिक्षाशास्त्र

अध्याय - 6

प्रयोजनवाद

(Pragmatism)

 

प्रश्न- शिक्षा की प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रमुख तत्वों की विवेचना कीजिए। शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम, शिक्षक तथा अनुशासन के सम्बन्ध में इनके विचारों को प्रस्तुत कीजिए।

अथवा
प्रयोजनवादी शिक्षा के अनुसार शिक्षण विधि तथा अनुशासन के सम्प्रत्यय की विवेचना कीजिए।
अथवा
शिक्षा में प्रयोजनवाद क्या है? इसके शैक्षिक उद्देश्यों, शिक्षण विधियों एवं शिक्षक के स्थान के बारे में अपने विचार स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -

प्रयोजनवाद का अर्थ व परिभाषा
(Meaning and Definition of Pragmatism)

'प्रयोजनवाद' शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर 'Pragmatism' है। कुछ विद्वान 'Pragmatism' शब्द की उत्पत्ति यूनानी शब्द ' Pragma ' से मानते हैं, जिसका अर्थ है - ' A thing done, Business, Effective action' किया गया कार्य, व्यवसाय, प्रभावपूर्ण कार्य।' लेकिन अन्य कुछ विद्वान इस शब्द की उत्पत्ति एक- दूसरे यूनानी शब्द 'Promitikos' से मानते हैं जिसका अर्थ है- 'Practicable ' व्यावहारिक। इस प्रकार 'Pragmatism' का अर्थ हुआ - 'Practicability' अर्थात् 'व्यावहारिकता'। इस प्रकार विस्तृत रूप में प्रयोजनवाद से आशय इस सिद्धान्त से है कि सभी विचारों, मूल्यों एवं निर्णयों का सत्य उसके व्यावहारिक परिणामों में पाया जाता है। यदि उनके परिणाम सन्तोषजनक हैं-तो वे सत्य हैं, अन्यथा नहीं।

प्रयोजनवादी वस्तुत: वास्तव में मानव जीवन के वास्तविक पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं। इस ब्रह्माण्ड को वे बस अनेक वस्तुओं और अनेक क्रियाओं का परिणाम मानते हैं, लेकिन ये वस्तुओं और क्रियाओं की व्याख्या नहीं करते वे इस इन्द्रियग्राह संसार के अस्तित्त्व को ही स्वीकार करते हैं, अन्य किसी के अस्तित्त्व को नहीं। वे न आत्मा को मानते हैं, न परमात्मा को। इनके अनुसार मन (Mind) का ही दूसरा नाम परमात्मा है तथा मन एक पदार्थ-जन्य क्रियाशील तत्त्व मात्र है। इसके अतिरिक्त ये ज्ञान को साध्य न मानकर मानव जीवन को सुखमय बनाने का साधन मानते हैं। इनके अनुसार, सामाजिक क्रियाओं के माध्यम से ही यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

रॉस - " प्रयोजनवाद निश्चित रूप से एक मानवतावादी दर्शन है जो यह मानता है कि मनुष्य, क्रिया में भाग लेकर अपने मूल्यों का निर्माण करता है और यह मानता है कि वास्तविकता सदैव निर्माण की अवस्था में रहती है। "

प्रैट -"प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धान्त, सत्य का सिद्धान्त, ज्ञान का सिद्धान्त, और वास्तविकता का सिद्धान्त देता है। "

रोजन - " प्रयोजनवाद, सत्य तथा अर्थ के सिद्धान्त को प्रधानता देने के कारण मूलतः ज्ञानवादी विचारधारा है। इस विचारधारा के अनुसार, सत्य को केवल उसके व्यावहारिक परिणामों से जाना जा सकता है। अतः सत्य, निरपेक्ष की अपेक्षा वैयक्तिक या सामाजिक वस्तु है।"

प्रयोजनवाद के रूप
(Forms of Pragmatism)

प्रयोजनवाद के अग्रलिखित तीन रूप या प्रकार हैं-

(1) मानवतावादी प्रयोजनवाद (Humanistic Pragmatism ) - इस प्रयोजनवाद के अनुसार, मानव प्रकृति को पूर्णरूप से सन्तुष्ट करने वाला सत्य है। इन प्रयोजनवादियों का विश्वास है कि "जो बात मेरे उद्देश्य को पूरा करती है, मेरी इच्छाओं को सन्तुष्ट करती है तथा मेरे जीवन का विकास करती है, वही संत्य है। "

(2) प्रयोगात्मक प्रयोजनवाद (Experimental Pragmatism ) - इस वाद के अनुसार सत्य का आधार विज्ञान की प्रयोगशालायें हैं। प्रयोगात्मक प्रयोजनवादियों का कथन है कि "जिस बात को प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है अथवा जो बात ठीक कार्य करती है, वही सत्य है। "

(3) जीवशास्त्रीय प्रयोजनवाद (Biological Pragmatism ) - इस वाद से आशय मनुष्य की उस शक्ति से है जिसकी सहायता से वह अपने आपको वातावरण के अनुकूल बनाता है तथा आवश्यकता पड़ने पर वातावरण को भी अपने अनुकूल बना लेता है। डीवी के शब्दों में, "इस प्रयोजनवाद की जाँच मानव को अपने वातावरण से अनुकूलन करने की विचार-प्रक्रिया से की जाती है।" यह वाद क्योंकि विचार को अनुकूल का साधन मानता है। अतः इसको प्रायः 'साधनवाद' (Instrumentalism) के नाम से भी जाना है।

प्रयोजनवाद के मुख्य दार्शनिक सिद्धान्त
(Main Philosophical Principles of Pragmatism)

प्रयोजनवाद मौलिक रूप से एक मानवतावादी दर्शन है। प्रयोजनवाद के मुख्य दार्शनिक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य है - प्रयोजनवादी में मनुष्य को संसार को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना है। मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के कारण हैं मनुष्य को मनोशारीरिक प्राणी होना, मनुष्य का विचारशील होना ही इसकी मुख्य विशेषता है। मनुष्य में अनुकूलन की अद्वितीय क्षमता है। वह पर्यावरण को अपने अनुकूल नियन्त्रित करने की भी क्षमता रखता है।

2. संसार का निर्माण अनेक तत्वों से हुआ है - प्रयोजनवाद अपने आप में बहुत्ववादी है। इस विचारधारा की मान्यता है कि हमारे इस विश्व की रचना विभिन्न तत्वों के मध्य होने वाली विभिन्न प्रकार की क्रियाओं के परिणामस्वरूप हुई है हमारे विश्व निर्माण की प्रक्रिया सदैव चलती रहती है।

3. सत्य शाश्वत नहीं अपितु परिवर्तनशील है - प्रयोजनवाद ने सैद्धान्तिक रूप से सत्य को शाश्वत नहीं माना। सत्य का स्वरूप परिवर्तित होता रहता है। एक युग से स्वीकार किये जाने वाले तथ्य किसी अन्य युग में सत्य नहीं होते।

4. केवल भौतिक संसार ही सत्य है - प्रयोजनवाद के अनुसार केवल भौतिक संसार ही सत्य है। इसके अतिरिक्त किसी आध्यात्मिक संसार का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रयोजनवाद के अनुसार केवल वही सत्य है जिसका कोई व्यावहारिक महत्व एवं उपयोगिता होती है। इस दृष्टिकोण से आध्यात्मिक जगत की कोई उपयोगिता नहीं है। अतः उनका अस्तित्व नहीं है।

5. सामाजिक विकास का महत्व - प्रयोजनवाद के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य का विकास समाज से रहकर ही होता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया भी समाज में होती है। समाज में रहकर व्यक्ति में विभिन्न सद्गुणों जैसेकि सहयोग, सहानुभूति, दया, क्षमा, सहनशक्ति आदि का समुचित विकास होता है। इन्हीं सद्गुणों का विकास ही सामाजिक विकास है। व्यक्तियों के सामाजिक विकास द्वारा ही इन्हें सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए सामाजिक विकास अनिवार्य है।

6. सुखपूर्वक जीवन ही मुख्य उद्देश्य है - प्रयोजनवादी मनुष्य के किसी अन्तिम उद्देश्य को निर्धारित नहीं मानते हैं, परन्तु फिर भी इनका विश्वास है कि मनुष्य को अपना पर्यावरण ऐसा तैयार करना चाहिये जिससे मानव मात्र को सुख प्राप्त हो।

7. राज्य एक सामाजिक संस्था है - प्रयोजनवाद ने राज्य को एक सामाजिक संस्था के रूप में स्वीकार किया है। राज्य को व्यक्ति एवं समाज दोनों के हित में कार्य करना चाहिए। राज्य का निर्माण मनुष्य द्वारा प्रयास हुआ है, यह एक वास्तविक संस्था है न कि कोई कृत्रिम संस्था। प्रयोजन ने मुख्य रूप से लोकतन्त्रीय शास्त्र प्रणाली को ही प्रोत्साहन दिया है।

8. सामाजिक कुशलता का महत्व - प्रयोजनवाद केवल सिद्धान्तों में ही नहीं बल्कि व्यावहारिकता में विश्वास रखता है। सामाजिक विकास के लिए सामाजिक कुशलता आवश्यक है। सामाजिक विकास के लिए समाज के सदस्यों में क्रियात्मक शक्ति भी होनी चाहिए। व्यक्ति की व्यावहारिक समस्याओं के समाधान के लिए क्रियात्मक शक्ति अनिवार्य है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मुख्य भौतिक आवश्यकताओं के लिए उसकी पूर्ति के लिए किसी न किसी उद्योग, उत्पादन कार्य एवं व्यवसाय को अपनाना चाहिए यही सामाजिक कुशलता है तथा सामाजिक विकास के लिए इसका विशेष महत्व है।

प्रयोजनवाद व शिक्षा
(Pragmatism and Education)

प्रयोजनवादी शिक्षा परिवर्तन की पक्षधर है। वह किसी सिद्धान्त या नियम को स्थिर नहीं मानती। समाज में क्योंकि निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। अतः शिक्षा एवं शिक्षालयों को परिवर्तन का अग्रदूत होना चाहिए।

प्रयोजनवादी शिक्षा की मुख्य विशेषतायें इस प्रकार हैं-

(1) प्रयोजनवादियों के अनुसार, जीवन क्रिया है तथा बालकों को सच्चा ज्ञान केवल क्रिया के माध्यम से ही मिल सकता है। इसके लिये आवश्यक है कि बालकों को कार्य तथा अनुभव करने के अधिक-से-अधिक अवसर प्रदान किये जायें।

(2) समाज में निरन्तर परिवर्तन हो रहे हैं। इसलिये शिक्षा को भी समाज की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित हो जाना चाहिए। प्रयोजनवाद पूर्व निश्चित सिद्धान्तों तथा अन्तिम सत्यों का खण्डन करता है।

(3) प्रयोजनवादी 'ज्ञान के लिये ज्ञान' के सिद्धान्त का खण्डन करता है तथा कहता है कि अपने अनुभवों द्वारा ही सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ये अनुभव वातावरण एवं परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।

(4) प्रयोजनवादियों की मान्यता है कि बालकों की शिक्षा समाज के माध्यम से होनी चाहिए जिससे उसमें सामाजिक गुण विकसित हो सकें।

(5) आधुनिक जनतन्त्रीय युग में प्रयोजनवाद की मान्यता है कि राज्य को बालक को शिक्षित करने का दायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए। इससे बालक के प्रभावशाली विकास में सहायता प्राप्त होगी।

प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
(Aims of Education According to the Pragmatism)

प्रयोजनवाद व्यवहारवादी है, उनके अनुसार शिक्षा को पूर्व निर्धारित नहीं किया जा सकता है। समय एवं परिस्थितियों के साथ शिक्षा के उद्देश्य परिवर्तित होते रहते हैं। प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान अर्जित करना मात्र ही नहीं है। शिक्षा के प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से उददेश्यों के विषय में डीवी का कथन भिन्न-भिन्न होते हैं। जैसे-जैसे बालक बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे शिक्षा के उद्देश्य बदलते जाते हैं। निर्धारित किये गये उद्देश्य भलाई की अपेक्षा बुराई ही करते हैं। उनको केवल आने वाले परिणामों को जानने स्थितियों की देखभाल करने और बालकों की शक्तियों को मुक्त तथा निर्देशित करके साधनों को चुनने के लिए सुझावों के रूप में स्वीकार करना चाहिए। प्रस्तुत कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा के उद्देश्य छात्रों की क्रियाओं और आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए। शिक्षा के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित होने चाहिए -

1. सामाजिक कुशलता - प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का यह उद्देश्य व्यक्ति को सामाजिक कुशलता प्रदान करना भी है। इसका आशय यह है कि शिक्षा इस प्रकार से हो, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की शक्तियों एवं क्षमताएं विकसित हो जायें और वह सामाजिक दृष्टि से कुशल बन जायें। सामाजिक रूप से कुशल व्यक्ति अपनी मौलिक आवश्यकताओं के प्रति सजग होता है तथा उसकी पूर्ति में सफल होता है।

2. अपने मूल्यों और आदर्शों का निर्माता - बालक स्वयं है अपने प्रयोजनवादी विचारधारा के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य यह है कि शिक्षा के परिणामस्वरूप बालक में ऐसी क्षमता का विकास होना चाहिए कि बालक अपने लिए मूल्यों और आदर्शों का निर्माण स्वयं कर ले। विभिन्न परिवर्तन परिस्थितियों में नये एवं भिन्न मूल्यों की आवश्यकता हुआ करती है। इस विषय में रॉस ने स्पष्ट कहा है- "प्रयोजनवादी शिक्षा का सबसे सामान्य उद्देश्य मूल्यों की रचना करना है।' शिक्षक का प्रमुख कर्तव्य विद्यार्थियों को ऐसे वातावरण में रखना है जिनमें रखकर उनमें नवीन मूल्यों का विकास हो सके।

3. बालक का विकास - प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य बालक का विकास करना भी है। प्रयोजनवादियों के अनुसार विकास की यह प्रक्रिया सदैव तथा निरन्तर रूप से चलती रहती है।

4. गतिशील और लचीले मस्तिष्क का विकास - प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा के इस उद्देश्य को रॉस ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है। "गतिशील और लचीले मस्तिष्क का विकास जो सब परिस्थितियों में साधनपूर्ण और साहसपूर्ण हो और जिसे अज्ञात भविष्य के लिए मूल्यों का निर्माण करने की शक्ति हो।" प्रयोजनवाद के अनुसार बालक की आवश्यकताओं, इच्छाओं, अभिप्रायों और रुचियों का महत्व स्वीकार किया जाता है। शिक्षा का एक उद्देश्य उचित मार्ग पर लाना भी है।

5. गतिशील निर्देशन - प्रयोजनवादियों द्वारा स्वीकार किये गये शिक्षा के उद्देश्यों में एक उद्देश्य बालकों को गतिशील निर्देशन प्रदान करना भी है। परन्तु प्रयोजनवादियों ने गतिशील निर्देशन की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है।

प्रयोजनवाद और पाठ्यक्रम
(Pragmatism and Curriculum)

प्रयोजनवादियों ने पाठ्यक्रम निर्माण के सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त प्रस्तुत किये-

(1) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility) - प्रयोजनवाद ऐसे पाठ्यक्रम के निर्माण पर बल देते हैं, जिससे बालक अपने वर्तमान एवं भावी जीवन के लिये तैयार हो सकें। उनकी दृष्टि से अध्ययनार्थ विषय, जीवन का वास्तविक समस्याओं को हल करने में बालकों की मदद करें। उनके अनुसार, पाठ्यक्रम में भाषा, स्वास्थ्य विज्ञान, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान एवं शारीरिक प्रशिक्षण को सम्मिलित किया जाना चाहिये। बालिकाओं के लिये गृह विज्ञान तथा बालकों के लिये कृषि विज्ञान होना चाहिये। इस सिद्धान्त के अनुसार, भविष्य के लिये किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त करना आवश्यक है।

(2) रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest ) – बालक की रुचियाँ उसके विकास के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न होती हैं। अत: प्रयोजनवादियों के अनुसार, पाठ्यक्रम निर्माण के समय इस बात को ध्यान में रखना चाहिए, उदाहरणार्थ प्राथमिक स्तर पर छात्रों की रुचि, खोज, रचना, कला-प्रदर्शन और बातचीत में होती है, अतः इस तरह पाठ्यक्रम के विषय होने चाहिये-पढ़ना, लिखना, गिनना, हाथ का काम, ड्राइंग तथा प्रकृति अध्ययन।

(3) अनुभव का सिद्धान्त (Principle of Experience ) - प्रयोजनवादियों के अनुसार पाठ्यक्रम का बालक के अनुभवों, भावी व्यवसायों व क्रियाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए। उनके अनुसार, पाठ्यक्रम में स्वतन्त्र, अर्थपूर्ण एवं सामाजिक क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होना चाहिये।

(4) एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration) - प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों में विभाजित करने के पक्ष में नहीं हैं। उनके अनुसार वास्तविक ज्ञान अखण्ड होना चाहिए।

प्रयोजनवाद व शिक्षण विधियाँ
(Pragmatism and Methods of Teaching)

प्रयोजनवादियों के अनुसार, शिक्षण विधियों का निर्धारण निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिये-

(1) सीखने की उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Purposive Process of Learning) - प्रयोजनवाद चाहता है कि बालक अपनी इच्छाओं, रुचियों और रुझानों के अनुसार स्वयं ही ज्ञान प्राप्त करे, शिक्षक उसके मस्तिष्क में ज्ञान को अनावश्यक रूप से न भरें।

(2) क्रिया या अनुभव द्वारा सीखने का सिद्धान्त (Principle of Learning by Doing or Experience) - प्रयोजनवादी चाहते हैं कि बालक क्रिया या अनुभव के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करे। 'करके सीखना' का अर्थ मात्र 'व्यावहारिक कार्य' को महत्त्व देना नहीं है बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि बालक को उन परिस्थितियों में रखा जाये जिनका वह सामना करना चाहता है।

(3) सीखने की प्रक्रिया के एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration of Learning Process) - प्रयोजनवादियों के अनुसार, ज्ञान एक इकाई है, उसे टुकड़ों या खण्डों में बाँटकर नहीं सिखाया जाना चाहिए। बालकों को जो भी विषय पढ़ाये जायें, उनमें एकीकरण व समन्वय आवश्यक है।

प्रयोजनवाद तथा शिक्षक
(Pragmatism and Teacher)

प्रयोजनवाद बच्चों को व्यवस्थित शिक्षा देने के पक्ष में नहीं है। इस विचारधारा के अनुसार शिक्षक द्वारा बच्चों को आवश्यक सूचनाएं प्रदान कर देना मात्र शिक्षा ही नहीं है परन्तु इस विचारधारा को स्वीकार करने के साथ ही शिक्षक की पूरी तरह अवहेलना नहीं की गयी। प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की भूमिका एक मार्गदर्शक की भूमिका है। अध्यापक का शिक्षक को सक्रिय निरीक्षण और पथ प्रदर्शन के रूप में कार्य करना चाहिए। शिक्षक को चाहिए कि वह ऐसा वातावरण तैयार करें जिससे छात्रों की अभीष्ट समस्या का हल निकालने में सफलता मिले। शिक्षक का एक अन्य दायित्व यह है कि बच्चों को अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाये और इन समस्या का हल निकालने में सफलता मिले। शिक्षक का एक अन्य दायित्व यह है कि बच्चों को अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाये और इन समस्याओं के समाधान प्राप्त करने के लिए सक्रिय बनाये। इससे यह लाभ होगा कि बालक अपने जीवन में किसी भी समस्या के समाधान के लिए उचित दिशा में प्रयास करने में सफल होंगे। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षक का व्यावहारिक महत्व है तथा वह न केवल शैक्षिक काल में बल्कि जीवन में भी योगदान देता है।

प्रयोजनवाद तथा अनुशासन
(Pragmatism and Discipline )

प्रयोजनवाद पारस्परिक कठोर अनुशासन व्यवस्था का घोर विरोधी है। उन्होंने दमनात्मक

अनुशासन, प्रभावात्मक अनुशासन तथा प्राकृतिक तथा प्राकृतिक अनुशासन को अस्वीकार किया है तथा इन सब प्रकार की अनुशासन व्यवस्थाओं को बालक के स्वाभाविक विकास में बाधक मानता है। प्रयोजनवादियों ने सामाजिक अनुशासन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक द्वारा बच्चों का किसी प्रकार का आदेश देना उचित नहीं है। वास्तव में विद्यालय का सामाजिक वातावरण इस प्रकार का होना चाहिए कि बच्चे उद्देश्यपूर्ण क्रियाओं करने के लिए प्रेरित थे। इस प्रकार का सामाजिक पर्यावरण में जब बच्चे सामूहिक क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेंगे तो उनकी मूल प्रवृत्तियों का स्वतः उदात्तीकरण होगा तथा बालक स्वतः ही अनुशासित जीवन की ओर उन्मुख होंगे। इस प्रकार अनुशासन स्वानुशासन होगा जिसका अधिक महत्व होगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि सामूहिक क्रियाओं के माध्यम से अनुशासन स्थापित होना चाहिए। विद्यालय में बच्चों को शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक तथा नैतिक क्रियाओं में सामूहिक रूप से भाग लेने के अवसर उपलब्ध कराये जाने चाहिए। इस प्रकार स्वतः ही सामूहिक नियन्त्रण स्थापित होगा और अनुशासन की व्यवस्था हो जायेगी। श्री भाटिया ने प्रयोजनवादी अनुशासन को इन शब्दों में स्पष्ट किया है। प्रयोजनवादी स्कूल मिली जुली क्रियाओं द्वारा सामाजिक अनुशासन के पक्ष में है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- शिक्षा के संकुचित तथा व्यापक अर्थों की व्याख्या कीजिए।
  2. प्रश्न- शिक्षा की अवधारणा स्पष्ट कीजिए तथा शिक्षा की परिभाषा देते हुए इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  3. प्रश्न- शिक्षा के विभिन्न स्वरूपों की व्याख्या कीजिए। शिक्षा तथा साक्षरता एवं अनुदेशन में क्या मूलभूत अन्तर है?
  4. प्रश्न- शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की विवेचना कीजिए तथा इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय को समझाइए।
  5. प्रश्न- "दर्शन जिसका कार्य सूक्ष्म तथा दूरस्थ से रहता है, शिक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं रख सकता जिसका कार्य व्यावहारिक और तात्कालिक होता है।" स्पष्ट कीजिए।
  6. प्रश्न- निम्नलिखित को परिभाषित कीजिए तथा शिक्षा के लिए इनके निहितार्थ स्पष्ट कीजिए - (i) तत्व-मीमांसा, (ii) ज्ञान-मीमांसा, (iii) मूल्य-मीमांसा।
  7. प्रश्न- शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव बताइये।
  8. प्रश्न- अनुशासन को दर्शन कैसे प्रभावित करता है?
  9. प्रश्न- शिक्षा दर्शन से आप क्या समझते हैं? परिभाषित कीजिए।
  10. प्रश्न- वेदान्त दर्शन क्या है? वेदान्त दर्शन के सिद्धान्त बताइए।
  11. प्रश्न- वेदान्त दर्शन व शिक्षा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। वेदान्त दर्शन में प्रतिपादित शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या व शिक्षण विधियों की व्याख्या कीजिए।
  12. प्रश्न- वेदान्त दर्शन के शिक्षा में योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
  13. प्रश्न- वेदान्त दर्शन की तत्व मीमांसा ज्ञान मीमांसा एवं मूल्य मीमांसा तथा उनके शैक्षिक अभिप्रेतार्थ की व्याख्या कीजिये।
  14. प्रश्न- वेदान्त दर्शन के अनुसार शिक्षार्थी की अवधारणा बताइए।
  15. प्रश्न- वेदान्त दर्शन व अनुशासन पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- अद्वैत शिक्षा के मूल सिद्धान्त बताइए।
  17. प्रश्न- अद्वैत वेदान्त दर्शन में दी गयी ब्रह्म की अवधारणा व उसके रूप पर टिप्पणी लिखिए।
  18. प्रश्न- अद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार आत्म-तत्व से क्या तात्पर्य है?
  19. प्रश्न- गीता में नीतिशास्त्र की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- गीता में भक्ति मार्ग की महत्ता क्या है?
  21. प्रश्न- श्रीमद्भगवत गीता के विषय विस्तार को संक्षेप में समझाइये |
  22. प्रश्न- गीता के अनुसार कर्म मार्ग क्या है?
  23. प्रश्न- गीता दर्शन में शिक्षा का क्या अर्थ है?
  24. प्रश्न- गीता दर्शन के अन्तर्गत शिक्षा के सिद्धान्तों को बताइए।
  25. प्रश्न- गीता दर्शन में शिक्षालयों का स्वरूप क्या था?
  26. प्रश्न- गीता दर्शन तथा मूल्य मीमांसा को संक्षेप में बताइए।
  27. प्रश्न- गीता में गुरू-शिष्य के सम्बन्ध कैसे थे?
  28. प्रश्न- आदर्शवाद से आप क्या समझते हैं? आदर्शवाद के मूलभूत सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
  29. प्रश्न- आदर्शवाद और शिक्षा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। आदर्शवाद के शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- आदर्शवाद में शिक्षक की भूमिका को समझाइए।
  31. प्रश्न- आदर्शवाद में शिक्षार्थी का क्या स्थान है?
  32. प्रश्न- आदर्शवाद में विद्यालय की परिकल्पना कीजिए।
  33. प्रश्न- आदर्शवाद में अनुशासन को समझाइए।
  34. प्रश्न- आदर्शवाद के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
  35. प्रश्न- प्रकृतिवाद का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए। प्रकृतिवाद के रूपों एवं सिद्धान्तों को संक्षेप में बताइए।
  36. प्रश्न- प्रकृतिवाद और शिक्षा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएँ तथा उद्देश्य बताइए।
  37. प्रश्न- प्रकृतिवाद के शिक्षा पाठ्यक्रम और शिक्षण विधि की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- "प्रकृतिवाद आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में बाजी हार चुका है।" स्पष्ट कीजिए।
  39. प्रश्न- आदर्शवादी अनुशासन एवं प्रकृतिवादी अनुशासन की क्या संकल्पना है? आप किसे उचित समझते हैं और क्यों?
  40. प्रश्न- प्रकृतिवादी शिक्षण विधियों पर प्रकाश डालिये।
  41. प्रश्न- प्रकृतिवाद तथा शिक्षक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  42. प्रश्न- प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा क्या है?
  43. प्रश्न- प्रकृतिवाद की ज्ञान मीमांसा क्या है?
  44. प्रश्न- प्रकृतिवाद में शिक्षक एवं छात्र सम्बन्ध स्पष्ट कीजिये।
  45. प्रश्न- प्रकृतिवादी अनुशासन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  46. प्रश्न- शिक्षा की प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रमुख तत्वों की विवेचना कीजिए। शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम, शिक्षक तथा अनुशासन के सम्बन्ध में इनके विचारों को प्रस्तुत कीजिए।
  47. प्रश्न- प्रयोजनवादियों तथा प्रकृतिवादियों द्वारा प्रतिपादित शिक्षण विधियों, शिक्षक तथा अनुशासन की तुलना कीजिए।
  48. प्रश्न- प्रयोजनवाद का मूल्यांकन कीजिए।
  49. प्रश्न- प्रयोजनवाद तथा आदर्शवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  50. प्रश्न- शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य तथा शिक्षण-विधि सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालते हुए गाँधी जी के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- गाँधी जी के शिक्षा दर्शन तथा शिक्षा की अवधारणा के विचारों को स्पष्ट कीजिए। उनके शैक्षिक सिद्धान्त वर्तमान भारत की प्रमुख समस्याओं का समाधान कहाँ तक कर सकते हैं?
  52. प्रश्न- बुनियादी शिक्षा क्या है?
  53. प्रश्न- बुनियादी शिक्षा का वर्तमान सन्दर्भ में महत्व बताइए।
  54. प्रश्न- "बुनियादी शिक्षा महात्त्मा गाँधी की महानतम् देन है"। समीक्षा कीजिए।
  55. प्रश्न- गाँधी जी की शिक्षा की परिभाषा की विवेचना कीजिए।
  56. प्रश्न- शारीरिक श्रम का क्या महत्त्व है?
  57. प्रश्न- गाँधी जी की शिल्प आधारित शिक्षा क्या है? शिल्प शिक्षा की आवश्यकता बताते हुए इसकी वर्तमान प्रासंगिकता बताइए।
  58. प्रश्न- वर्धा शिक्षा योजना पर टिप्पणी लिखिए।
  59. प्रश्न- शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्यों, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  60. प्रश्न- स्वामी विवेकानन्द के अनुसार अनुशासन का अर्थ बताइए। शिक्षक, शिक्षार्थी तथा विद्यालय के सम्बन्ध में स्वामी जी के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  61. प्रश्न- स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में विवेकानन्द के क्या योगदान हैं? लिखिए।
  62. प्रश्न- जन-शिक्षा के विषय में स्वामी विवेकानन्द के विचार बताइए।
  63. प्रश्न- स्वामी विवेकानन्द की मानव निर्माणकारी शिक्षा क्या है?
  64. प्रश्न- डॉ. भीमराव अम्बेडकर के शिक्षा दर्शन पर प्रकाश डालिए।
  65. प्रश्न- डॉ. अम्बेडकर के शिक्षा दर्शन का क्या अभिप्राय है? बताइए।
  66. प्रश्न- जाति भेदभाव को खत्म करने के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
  67. प्रश्न- डॉ. अम्बेडकर की शिक्षा दर्शन की शिक्षण विधियाँ क्या हैं? बताइए। शिक्षक व शिक्षार्थी सम्बन्ध का वर्णन कीजिए।
  68. प्रश्न- प्रकृतिवाद के सन्दर्भ में रूसो के विचारों का वर्णन कीजिए।
  69. प्रश्न- मानव विकास की विभिन्न अवस्थाओं हेतु रूसो द्वारा प्रतिपादित शिक्षा योजना का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  70. प्रश्न- रूसो की 'निषेधात्मक शिक्षा' की संकल्पना क्या है? सोदाहरण समझाइए।
  71. प्रश्न- रूसो के प्रमुख शैक्षिक विचार क्या हैं?
  72. प्रश्न- जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन पर प्रकाश डालते हुए उनके द्वारा निर्धारित शिक्षा व्यवस्था के प्रत्येक पहलू को स्पष्ट कीजिए।
  73. प्रश्न- जॉन डीवी के उपयोगिता शिक्षा सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
  74. प्रश्न- आधुनिक शिक्षण विधियों एवं पाठ्यक्रम के निर्धारण में जॉन डीवी के योगदान का वर्णन कीजिए।
  75. प्रश्न- बहुलवाद से क्या तात्पर्य है? राज्य के विषय में बहुलवादियों के क्या विचार हैं?
  76. प्रश्न- बहुलवाद और बहुलसंस्कृतिवाद का क्या आशय है?
  77. प्रश्न- बहुलवाद, बहुलवादी शिक्षा से आपका क्या आशय है? इसकी विधियाँ बताइये।
  78. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  79. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया को बताइए।
  80. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों की विवेचना कीजिए।
  81. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में जाति, वर्ग एवं लिंग की भूमिका बताइए।
  82. प्रश्न- विद्यालय संगठन से आप क्या समझते हैं? विद्यालय संगठन का अर्थ, उद्देश्य एवं इसकी आवश्यकताओं पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- विद्यालय संगठन की परिभाषाए देते हुए विद्यालय संगठन की विशेषताओं का वर्णन करें।
  84. प्रश्न- विद्यालय संगठन एवं शैक्षिक प्रशासन में सम्बन्ध बताइए।
  85. प्रश्न- विद्यालय संगठन से आप क्या समझते हैं?
  86. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है? इनसे सम्बन्धित धारणाओं का वर्णन कीजिए।
  87. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के दृष्टिकोण से शिक्षा के प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  88. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तनों तथा शिक्षा के पारस्परिक सम्बन्धों को समझाइए |
  89. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में विद्यालय की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
  90. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में बाधा उत्पन्न करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
  91. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ बताइए।
  92. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के प्रारूप बताइए।
  93. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता से आप क्या समझते हैं? सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न कारक एवं शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
  94. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न रूपों का विवेचन कीजिए।
  95. प्रश्न- उच्चगामी गतिशीलता क्या है?
  96. प्रश्न- मौलिक अधिकारों का महत्व तथा अर्थ बताइये। मौलिक अधिकार व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
  97. प्रश्न- भारतीय नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकारों का मूल्यांकन कीजिए।
  98. प्रश्न- भारतीय संविधान के अधिकार पत्र की प्रमुख विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  99. प्रश्न- मानव अधिकारों की रक्षा के लिए किये गये विशेष प्रयत्न इस दिशा में कितने कारगर हैं? विश्लेषण कीजिए।
  100. प्रश्न- मौलिक अधिकार एवं मानव अधिकारों में अन्तर लिखिए।
  101. प्रश्न- भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के उल्लेख की आवश्यकता पर टिप्पणी लिखिए।
  102. प्रश्न- मौलिक अधिकार एवं नीति-निदेशक तत्वों में अन्तर बतलाइये।
  103. प्रश्न- विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर टिप्पणी लिखिए।
  104. प्रश्न- सम्पत्ति के अधिकार पर टिप्पणी लिखिए।
  105. प्रश्न- 'निवारक निरोध' से आप क्या समझते हैं?
  106. प्रश्न- क्या मौलिक अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है?
  107. प्रश्न- मौलिक कर्त्तव्य कौन-कौन से हैं? इनके महत्व पर प्रकाश डालिये।
  108. प्रश्न- नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों की प्रकृति तथा इनके महत्व का उल्लेख कीजिए।
  109. प्रश्न- 'अधिकार तथा कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस कथन की विवेचना कीजिए।
  110. प्रश्न- नागरिकों के मूल कर्तव्यों का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  111. प्रश्न- मौलिक कर्तव्यों का मूल्यांकन कीजिए।
  112. प्रश्न- नीति निदेशक तत्वों से आप क्या समझते हैं? संविधान में इनके उद्देश्य एवं महत्व का वर्णन कीजिए।
  113. प्रश्न- संविधान में वर्णित नीति निदेशक सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  114. प्रश्न- मौलिक अधिकारों तथा नीति निदेशक सिद्धान्तों में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिए।
  115. प्रश्न- नीति निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन की आलोचनात्मक व्याख्या अपने शब्दों में कीजिए।
  116. प्रश्न- नीति-निदेशक तत्वों का अर्थ बताइए।
  117. प्रश्न- राज्य के उन नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख कीजिये जिन्हें गांधीवाद कहा जाता है।
  118. प्रश्न- नीति निदेशक सिद्धान्तों का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  119. प्रश्न- नीति निदेशक तत्वों की प्रकृति अथवा स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
  120. प्रश्न- राष्ट्रीय विकास में शिक्षा की भूमिका को विस्तार से बताइए।
  121. प्रश्न- सतत् विकास के लिए शिक्षा से आप क्या समझते हैं? सतत् विकास में शिक्षा की अवधारणा और उत्पत्ति का वर्णन कीजिए।
  122. प्रश्न- सहस्राब्दी विकास लक्ष्य मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स का निर्धारण कौन-सा संस्थान करता है?
  123. प्रश्न- एमडीजी और एसडीजी के मध्य अन्तर बताइए।
  124. प्रश्न- ज्ञान अर्थव्यवस्था की राह पर विकास के संकेतक के रूप में शिक्षा को संक्षेप में बताइए। ज्ञान अर्थव्यवस्था के महत्व को भी बताइए।
  125. प्रश्न- शिक्षा के उद्देश्य को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
  126. प्रश्न- सतत् शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ एवं उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
  127. प्रश्न- सतत् शिक्षा के प्रमुख अभिकरण की व्याख्या कीजिए।
  128. प्रश्न- मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (MDGs) व सतत् विकास लक्ष्य (एसडीजी) क्या है? बताइए।

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