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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।

उत्तर -

स्थूल परसुखवाद की समीक्षा

बैंथम के स्थूल परसुखवाद को 'स्वार्थवाद एवं परार्थवाद के माध्यम से समझ सकते हैं। मनुष्य के स्वार्थी स्वभाव को स्पष्ट करते हुए बैंथम ने कहा है, "अपने लिए सुख का अधिकांश भाग प्राप्त करना प्रत्येक बौद्धिक प्राणी का लक्ष्य है। प्रत्येक मनुष्य किसी अन्य मनुष्य की अपेक्षा अपने अधिक निकट है और कोई भी मनुष्य उसके लिये उसके सुख दुःख को नहीं तौल सकता।" उसके ही शब्दों में, "यह स्वप्न मत देखो कि कोई व्यक्ति तुम्हारे लिये अपनी छोटी उंगली भी हिलायेगा। जब तक कि ऐसा करने में उसको अपना लाभ स्पष्ट न हो। मनुष्यों ने ऐसा कभी नहीं किया और जब तक मानव स्वभाव वर्तमान तत्वों से बना है तब तक वे ऐसा कभी नहीं करेंगे परन्तु वे तुम्हारी सेवा करने की इच्छा करेंगे जबकि ऐसा करने से वे अपनी सेवा कर सकते है।' इस प्रकार सुख-दुःख के सन्दर्भ में ही व्यक्ति के लिये कर्तव्य, नियम तथा सद्गुण आदि का महत्व है।

मनुष्य को स्वभाव से स्वार्थी मानते हुए भी बैंथम ने पार्थवाद का समर्थन किया है। नैतिक दृष्टिकोण को स्वीकार करते हुए बेन्थम ने कहा है कि व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य व्यक्तिगत सुख नहीं है बल्कि सामाजिक या सार्वजनिक सुख को ही व्यक्ति के लिये अभीष्ट लक्ष्य मानना चाहिये। व्यक्ति के लिये उच्चतम नैतिक आदर्श है "अधिकतम परिमाण में अधिकतम व्यक्तियों का सुख।" इस प्रकार बैंन्थम मानवमात्र के सुख की प्राप्ति को सर्वोच्च लक्ष्य स्वीकार करता है परन्तु इसके साथ ही वह व्यक्ति के सुख की भी किसी प्रकार से अवहेलना नहीं करता। बैथम ने समानता या निष्पक्षता के सिद्धान्त का समर्थन किया है। 

बैंथम का कथन है कि सुख को मापने के लिए हमें उसकी मात्रा अथवा उसके परिमाण पर ही ध्यान देना चाहिये, क्योंकि गुणात्मक दृष्टि से सभी सुख पूर्णतः समान होते है अर्थात एक सुख दूसरे सुख की अपेक्षा उत्कृष्ट या निकृष्ट नहीं होता। सुख के परिमाण को मापने के लिए उन्होंने एक विशेष सिद्धांत का प्रतिपादन किया है जिसे 'सुख कलन' कहा जाता है। इसके अनुसार सुख की कमी अथवा अधिकता को तीव्रता, अवधि, निश्चितता, निकटता, उत्पादकता, शुद्धता और व्यापकता इन सात तत्वों द्वारा ही मापा जा सकता है। ये सात तत्व ही सुख की मात्रा के साथ-साथ उसकी वांछनीयता को भी निर्धारित करते है। इसका अर्थ यह है कि अधिक तीव्र सुख कम तीव्र सुख की अपेक्षा अधिक वांछनीय है। इसी प्रकार क्षणिक सुख की अपेक्षा अधिक समय तक बने रहने वाले सुख की वांछनीयता अधिक है। अनिश्चित सुख की अपेक्षा ऐसा सुख अधिक वांछनीय है जिसकी प्राप्ति अपेक्षाकृत निश्चित है। सुदूर भविष्य में प्राप्त हो सकने वाले सम्भावित सुख की अपेक्षा तात्कालिक सुख का अधिक महत्व है। जो सुख अन्य किसी प्रकार के सुख को उत्पन्न नहीं करता उसकी अपेक्षा वह सुख अधिक वांछनीय है. जिससे अन्य सुख उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार दुःख मिश्रित सुख की अपेक्षा वह विशुद्ध सुख अधिक वांछनीय है जिसमें किसी प्रकार के दुःख का मिश्रण नहीं है। अंततः केवल एक व्यक्ति तक सीमित सुख की अपेक्षा उस व्यापक सुख का कहीं अधिक महत्व है जिसका बहुत से व्यक्ति उपभोग करते अथवा कर सकते हैं। बैंन्थम के मतानुसार उपर्युक्त सभी सात तत्व ही सुख की मात्रा और वांछनीयता दोनों को निश्चित करते हैं। यदि इन तत्वों पर ध्यानपूर्वक विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से अंतिम तत्व को छोड़कर शेष सभी मुख्यतः व्यक्ति के लिए ही सुख की मात्रा और वांछनीयता को निर्धारित करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि एक व्यक्ति के लिए अपेक्षाकृत अधिक तीव्र, स्थाई निश्चित निकटवर्ती, उत्पादक तथा दुःख रहित विशुद्ध सुख कम तीव्र, क्षणिक, अनिश्चित, दूरवर्ती, अनुत्पादक और दुःख मिश्रित सुखं की अपेक्षा अधिक शुभ अथवा वांछनीय है। उपर्युक्त तत्वों में से अंतिम तत्व व्यापकता अथवा विस्तार सामाजिक सुख की मात्रा तथा वांछनीयता को महत्व देता है। इसके अनुसार जिस सुख का जितने अधिक व्यक्ति उपभोग कर सकें वह उतना ही शुभ या वांछनीय है। वस्तुतः सुख की व्यापकता से सम्बंधित यही तत्व बेंथम के सिद्धान्त को स्वार्थमूलक नैतिक सुखवाद से पृथक करता है। मनुष्य को पूर्णतः स्वार्थी मानते हुए भी ब्रेन्थम कहते है कि प्रत्येक व्यक्ति को केवल अपने सुख के लिए नहीं अपितु " अधिकतम के अधिकतम सुख के सिद्धान्त के अनुसार आचरण करना चाहिए। यह अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख ही सर्वार्थसुखमूलक उपयोगितावाद का आधारभूत सिद्धांत है। बैंथम मिल, सिजविक आदि सभी सुखमूलक उपयोगितावादी इस मूल सिद्धांत को स्वीकार करते है। बैंथम ने स्पष्ट कहा है कि यही उपयोगितावादी सिद्धान्त मनुष्य के समस्त नैतिक कर्तव्यों को निर्धारित करता है, क्योंकि 'उपयोगिता' के अतिरिक्त नैतिकता का और कोई आधार नहीं हो सकता। उनके विचार में उपयोगितावाद के इस मूल सिद्धांत के अनुसार आचरण करते समय सभी व्यक्तियों के सुख को समान महत्व देना बहुत आवश्यक है।

स्थूल परसुखवाद में स्वयं बैंथम ने यह प्रश्न उठाया है कि पूर्णतः स्वार्थी होते हुए भी मनुष्य सामाजिक हित अथवा सुख के लिए कार्य क्यों करता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि मुख्य चार कारणों से प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के साथ-साथ दूसरों के सुख का भी ध्यान रखना पड़ता है। ये चार कारण हैं- भौतिक दबाव, राजनैतिक दबाव, सामाजिक दबाव, तथा धार्मिक दबाव। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जिन प्राकृतिक नियमों का पालन करना आवश्यक है, उन्हें बैंथम ने 'भौतिक दबाव' कहा है। प्रत्येक व्यक्ति यह भली-भांति जानता है कि यदि वह राजनैतिक कानूनों तथा सामाजिक नियमों का उल्लंघन करके दूसरों को कष्ट पहुँचायेगा तो राज्य उसे दंड दे सकता है और समाज उसकी भर्त्सना अथवा निंदा कर सकता है जिसके फलस्वरूप उसका अपना जीवन दुःखमय हो सकता है। परोपकारी व्यक्ति की समाज प्रशंसा करता है। इससे उसे जो सुख प्राप्त होता है वह स्वार्थी को नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त बहुत से व्यक्ति यह भी विश्वास करते हैं कि यदि वे दूसरों को हानि पहुँचाएंगे तो ईश्वर उन्हें कठोर दंड देगा। उदाहरण के लिए मृत्यु के पश्चात् उन्हें नर्क की घोर यातना भोगनी पड़ेगी। इसके विपरीत अच्छे कर्म (परोपकार) करने वालों से ईश्वर प्रसन्न होगा और उन्हें सुख मिलेगा। इस प्रकार बेंथम के मतानुसार राज्य, समाज अथवा ईश्वर द्वारा दंडित किये जाने के भय से अथवा पुरस्कृत किये जाने के आकर्षण से मनुष्य अपने सुख के साथ-साथ दूसरों के सुख का भी ध्यान रखने के लिए प्रेरित होता है।

बैंन्थम उपयोगितावादी है इसी सिद्धांन्त के आधार पर वह परार्थवादी सुखवाद अथवा स्थूल परसुखवाद का समर्थन करता है। उपयोगितावाद के सिद्धान्त से तात्पर्य उस सिद्धान्त से है जो कि प्रत्येक कर्म को उस प्रवृत्ति के अनुसार स्वीकार अथवा अस्वीकार करता है जोकि उन लोगों के सुख-दुख का ह्रास अथवा विकास करती प्रतीत होती है जिसका स्वार्थ उसका सम्बद्ध है। अतः उपयोगिता ही नैतिकता का मापदण्ड है, वही कर्मों की वास्तविक परम प्रेरक है। आधुनिक सुखवाद की इस परार्थवादी मान्यता के कारण ही इन सिद्धान्तों को सुखवाद न कहकर उपयोगितावाद कहा जाता है। उपयोगितावाद के भी दो रूप हैं उपयोगितावाद के एक रूप में सुख को स्थूल में ही अभीष्ट माना गया है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन बैंन्थम ने किया। उपयोगिता के दूसरे रूप में सुख के परिष्कृत रूप को जीवन का लक्ष्य माना गया है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मिल ने किया है। 

निष्कर्षतः - बैथम ने 'स्थूल परसुखवाद को प्रतिपादित करने के लिये मनोवैज्ञानिक सुखवाद तथा नैतिक सुखवाद को समन्वित रूप में स्वीकार किया है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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