बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर -
नैतिक विकास का अर्थ साधारण शब्दों में नैतिक व्यवहार से तात्पर्य सामाजिक मान्यताओं व आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करने से है। हरलॉक के मतानुसार "समूह के कोड के
अनुसार व्यवहार करना ही नैतिक व्यवहार कहलाता है।' नैतिक व्यवहार से सम्बन्धित नियमों व मान्यताओं का पालन करना व्यक्ति के चरित्र की दृढ़ता व पवित्रता से सम्बन्धित होता है।
अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति नैतिक मूल्यों व आदर्शों को इसीलिए नहीं अपनाता है कि वे परम्परागत हैं व समाज के सभी लोग इनका अनुसरण करते हैं बल्कि वह इन मूल्यों और आदर्शों को अपनी तर्क व विवेकशक्ति के आधार पर ग्रहण करता है, क्योंकि नैतिकता से सम्बन्धित सभी नियम धार्मिक विश्वासों, नियमों, पवित्रता, आस्था, न्याय तथा सच्चाई पर आधारित होते हैं और सदैव बुद्धि से सम्बन्धित तथा तार्किक होते हैं।'
नैतिकता से सम्बन्धित व्यवहार जन्मजात नहीं होता, अपितु नैतिकता का विकास बालक के वातावरण के सम्पर्क में आने के पश्चात् होता है। प्रारम्भ में बालक नैतिकता से सम्बन्धित व्यवहार को पुरस्कार, दण्ड या प्रशंसा निंदा के आधार पर सीखता है। आरम्भ में बालक को उचित और अनुचित का ज्ञान नहीं होता है। वह केवल प्रलोभन के कारण उचित व्यवहार प्रदर्शित करता है। इस अवस्था में बालक को पूर्णतः नैतिक नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में बालक में नैतिकता का विकास उसके ज्ञान, शक्ति व विवेक के विकास पर निर्भर करता है।
नैतिक विकास के चरण नैतिक विकास के निम्नलिखित दो चरण होते हैं -
(1) नैतिक व्यवहार का विकास - समाज के समस्त व्यवहारों को ग्रहण करने में व्यक्ति को अनेक वर्ष लगते हैं। इसमें कुछ नैतिक व्यवहारों को वह दण्ड एवं पुरस्कार के कारण सीखता है। कुछ को अनुकरण द्वारा सीखता है और कुछ को प्रतिबिम्बित चिन्तन के माध्यम से सीखता है। समस्त नैतिक व्यवहारों को सिखाने का उद्देश्य बालकों में अनुशासन की भावना विकसित करना है। यदि अनुशासन की धारणा स्पष्ट है तो बालक नैतिक व्यवहार को सरलतापूर्वक सीख लेता है। बालक को सही गलत सिखाना मात्र ही नैतिक व्यवहार का सीखना नहीं है। ईमानदारी के गुण के बारे में अध्ययन करके यह परिणाम निकाला गया कि विशिष्ट परिस्थितियों में ऐसे गुणों का विकास किया जा सकता है। कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति आती है कि बालक सही निर्णय लेने में संघर्ष की स्थिति से गुजरता है। नैतिक व्यवहार को उचित रूप से सीखने के लिए बालकों को निम्नांकित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
(i) बालक में सही-गलत की शुद्ध अवधारणाओं का विकास होना चाहिए।
(ii) विभिन्न परिस्थितियों में समान विशेषताओं वाले व्यवहार का अर्जन करना चाहिए।
(2) नैतिक अवधारणा का विकास - नैतिक विकास की प्रक्रिया में नैतिक अवधारणा का विकास भी एक आवश्यक पहलू है। जब हम सही-गलत की बात करते हैं तो हम यह मान लेते हैं कि यह भावात्मक विचार है। भावात्मक अवधारणाओं को ग्रहण करने तथा समझने के लिए यह आवश्यक है कि मानसिक तथा शारीरिक परिपक्वता में संतुलन हो। अवधारणा के विकास पर बालक की बुद्धि, उसके सामाजिक-सांवेगिक विकास, सांस्कृतिक वातावरण एवं उसकी प्रक्रिया से उत्पन्न गुणों का प्रभाव पड़ता है। बालक में निःस्वार्थ भावना का विकास स्वार्थ की भावना युक्त आत्मकेन्द्रीयता, सामजिक केन्द्रीयता, आज्ञा पालन, धर्म तथा नैतिकता के नियमों का अनुपालन, सामाजिक अस्वीकृति का भय तथा पारस्परिक अनुक्रिया द्वारा होता है।
नैतिकता या नैतिक व्यवहार का सम्बन्ध ऐसी मानसिक वृत्ति से है, जो मनुष्य को उचित - * अनुचित का ज्ञान कराती है तथा उसे मानवीय मूल्यों को बनाए रखने और चारित्रिक नियमों के अनुसार कार्य करने की प्रेरणा देती है। इस प्रकार से नैतिकता आत्म चेतना के आधार पर व्यक्ति को उचित - अनुचित, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय और भलाई-बुराई में अन्तर करना सिखाती है। यह सभी प्रकार के अन्तर व्यक्ति अपने सामाजिक अनुभवों के आधार पर ही सीख पाता है। यदि बालक में नैतिक मूल्य दृढ़ व स्थायी रूप धारण कर लेते हैं तो बालक कठिन परिस्थितियों में भी अनुचित व्यवहार नहीं करता है, अपितु वह अपनी बुद्धि एवं तर्क के आधार पर उचित निर्णय लेकर ही सही व उचित व्यवहार करता है।
नैतिक भावना बच्चे में शैशव अवस्था से ही पैदा होने लगती है। नैतिकता की पहली सीढ़ी परिणाम पर आधारित होती है। यह सात वर्ष से पूर्व की आयु होती है, जब बच्चा किए गए कार्य के अनुकूल प्रभाव को अच्छा और प्रतिकूल प्रभाव को बुरे की संज्ञा देता है।
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