बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
उत्तर -
गृहस्थों के लिए पंचमहाव्रत 'अणुव्रत' के रूप में प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि विश्व में रहते हुए इन महाव्रतों का पालन पूर्ण रूप से करना सम्भव नहीं है। इसलिए इसके आंशिक पालन पर ही बल दिया गया है। पंचमहाव्रत को आंशिक रूप में पालन करना ही अणुव्रत कहलाता है। ये अणुव्रत हैं अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अस्तेयाणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत तथा अपरिग्रहाणुव्रत। अणुव्रत के पालन के लिए निम्नलिखित चार आधार को स्वीकार किया गया है -
1. मैत्री - सभी के साथ मित्रता का भाव रखना।
2. प्रमोद - अन्य की उन्नति से प्रसन्न होना।
3. कारुण्य - दुःखियों के प्रति दयाभाव रखना।
4. माध्यस्थ - दृष्ट व्यक्तियों की बातों पर ध्यान नहीं देना।
पंचमहाव्रत और अणुव्रत में तीन बातें समान हैं मांस, मदिरा तथा शहदपान न करना। पंचमहाव्रत और अणुव्रत (जिसके लिए जो आवश्यक हो) के साथ आचरण के लिए शीलव्रत का पालन भी आवश्यक है। शीलव्रत दो प्रकार के हैं गुणव्रत और शिक्षाव्रत। गुणव्रत निम्नलिखित तीन प्रकार के हैं -
(i) दिव्रत - किसी विशेष दिशा में अपनी क्रिया को सीमित रखना।
(ii) देशव्रत - किसी विशेष क्षेत्र में अपना कार्य सीमित रखना।
(iii) अनर्थदण्डव्रत - अकारण अपराध न करना।
शिक्षाव्रत के निम्नलिखित चार भेद हैं-
(i) सामयिक - समय के कुछ भाग को अपने ऊपर विचार के लिए रखना।
(ii) प्रोषधोपवास - महीने में चार दिन (दोनों अष्टमियों और चतुर्दशियों) को उपवास
(iii) उपभोग-प्रतिभोग परिणाम - वस्तुओं तथा पदार्थों के दैनिक उपयोग को नियमित
(iv) अतिथि संविभाग - अतिथियों को भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करना।
जैन नीतिशास्त्र में शरीर को कष्ट और कलेश देकर साधना का कार्य पूरा करने को कहा गया है। तपस्या, व्रत, अनशन और उपासना आदि का पालन परिव्राजक के लिए वांछनीय है। जैन नीतिशास्त्र मन तथा शरीर की शुद्धि पर अधिक बल देता है। इसलिए ब्राह्मण धर्म के यज्ञ और कर्मकाण्ड का विरोध किया गया है। बाह्य शुद्धि के स्थान पर आन्तरिक शुद्धि पर बल दिया गया है। सच्चरित्रता और सदाचरण इसके प्रधान आधार हैं। कर्म को महत्वपूर्ण माना गया है। व्यक्ति जन्म से ऊँचा और नीचा नहीं होता है बल्कि कर्म से ऊँचा और नीचा होता है। सत्कर्म का पालन करने वाला व्यक्ति उच्च होता है। सत्कर्म के लिए निम्नलिखित अठारह प्रकार के कर्मों का परित्याग आवश्यक है -
1. हिंसा,
2. झूठ
3. चोरी,
4. मैथुन,
5 परिग्रह
6. क्रोध,
7. मान,
8. माया,
9. लोभ,
10. राग,
11. द्वेष,
12. कलह,
13. दोषारोपण,
14. चुगली,
15. असंयम में रति और संयम में अरति,
16. निन्दा,
17. कपटपूर्ण मिथ्या,
18. मिथ्या दर्शन रूपी शल्य।
इन सभी के पापों से मुक्त होने पर जीव समभाव में आता है तथा निर्वाण मार्ग की ओर अग्रसर होता है। जैन नीतिशास्त्र का चरम लक्ष्य निर्वाण है जो सत्कर्म ओर सन्मार्ग से ही सम्भव है। निर्वाण की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है क्योंकि बिना निवृत्ति के सत्कर्म का पालन नहीं हो सकता है और बिना सत्कर्म के लिए ज्ञान आवश्यक होता है।
महावीर के अनुसार मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं -
1. अव्रती - ये सांसारिक मोह माया में लिप्त रहते हैं तथा उनसे विलग होने का उनका मन नहीं होता है।
2. अणुव्रती - ये आंशिक रूप से हिंसा आदि दुष्कर्मों से अलग रहते हैं।
3. सर्वव्रती - ये पूर्णतः अनासक्त भाव से रहते हुए सच्चरित्रता और सत्कर्म का पालन करते हैं।
जैन संघ में रहने वाले भिक्षुगणों के लिए पंचमहाव्रत का पालन आवश्यक था। वे भिक्षा के माध्यम से जीवन-यापन कर अपने मन, वचन और कर्म से आचरण को शुद्ध रखा करते थे। वे इन्द्रिय सुख का परित्याग करते थे। भिक्षुओं के लिए अनेक नियमों की स्थापना की गई थी जिसका पालन करना उनके लिए अनिवार्य था।
भिक्षु अनुशासन, त्याग, सुनृत और अनासक्त जीवन व्यतीत करते थे। आचारांग सूत्र में उनके लिए कठोर नियम बनाए गए हैं। भिक्षुओं को निम्नलिखित अठारह प्रकार के कर्मों से दूर रहने का निर्देश दिया गया है-
1. हिंसा,
2. असत्य भाषण
3. सम्भोग,
4. चोरी,
5. रात्रि में भोजन,
6. सम्पत्ति,
7. जल शरीरी जीव पीड़न,
8 क्षिति शरीरी जीव पीड़न,
9 अग्नि शरीरी जीव पीड़न,
10. वानस्पतिक जीव पीड़न
11. वायुं शरीरी जीव पीड़न,
12. गृहस्थ पात्र में भोजन,
13. जंगम जीव पीड़न,
14 वर्जित वस्तु
15 बिस्तर, तकिए, आदि का उपयोग
16. चारपाई आदि का प्रयोग
17. अलंकरण
18. स्नान।
इन बाह्य आचरणों के अतिरिक्त उन्हें अन्तः आचरण का पालन करने का भी आदेश दिया गया है। मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहना उनके लिए आवश्यक था।
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