बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 14
अपराध एवं दण्ड के सिद्धान्त
(Theories of Crime and Punishment)
प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
नीतिशास्त्र के क्षेत्र में दण्ड का विशेष महत्व है। कर्म सभी प्रकार के होते हैं, कुछ कर्म अच्छे होते हैं, कुछ कर्म बुरे भी होते हैं। अच्छे कर्मों का परिणाम अच्छा होता है तथा बुरे कर्मों का परिणाम बुरा होता है। हम इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि अच्छे या शुभ कर्म करने से पुरस्कार की प्राप्ति होती है तथा बुरे या अशुभ कार्यों को करने से दण्ड की प्राप्ति होती है।
दण्ड तथा पुरस्कार एक नैतिक प्रेरक भी है। व्यक्ति दण्ड के भय से गलत कार्य नहीं करता तथा पुरस्कार के प्रलोभन से अच्छे कार्य करता है। प्रत्येक व्यक्ति समाज में सम्मान पाना चाहता है। इसी कारण वह बुरे अथवा गलत कार्यों को करने की अपेक्षा अच्छे कर्म करता है। इसका एक दूसरा रूप यह भी हो सकता है कि व्यक्ति यह मानता है कि अच्छे कार्यों के परिणाम से उसे स्वर्ग की प्राप्ति तथा बुरे कार्यों को करने से उसे नरक की प्राप्ति होती है। अतः व्यक्ति के मन में स्वर्ग के प्रति अच्छी भावना तथा नरक के प्रति विपरीत भावना होती है।
टैफ्ट के अनुसार, "दण्ड को हम एक ऐसा अवांछनीय अनुभवों वाला कष्ट कह सकते हैं, जोकि समाज की शान्ति भंग करने वाले व्यक्ति को दिया जाता है। यह कष्ट सदैव उस व्यक्ति के हितार्थ नहीं होता है।'
दण्ड के उद्देश्य भी अनेक माने गये हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार अनुचित कार्य करने से व्यक्ति को ही नहीं अपितु समाज को भी अनेक लाभ होते हैं। कुछ विद्वानों ने अनुचित कार्य के लिए दण्ड का विधान माना है। कुछ विद्वान प्रतिरोध को दण्ड का उद्देश्य मानते हैं। कुछ विद्वान अनुचित कार्यों को रोकने के लिए दण्ड की व्यवस्था उत्तम मानते हैं। विभिन्न विद्वानों ने दण्ड के अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।
दण्ड का प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त
दण्ड के सिद्धान्त में सबसे प्राचीन सिद्धान्त प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त की मान्यता है जैसे को तैसा। इस सिद्धान्त में यह माना गया है कि अनुचित कार्य करने वाले को अवश्य दण्ड दिया जाना चाहिए।
सिजविक के अनुसार, "दण्ड का व्यवस्थापन सामाजिक सुरक्षा के लिए किया गया है तथा इस आधार पर प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त एक सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त है।'
प्राचीन समय में जर्मन में दण्ड व्यवस्था में यही रूप प्रचलित था अर्थात् आँखों के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत आदि प्रसिद्ध विद्वान काण्ट ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया। इस सिद्धान्त में बुरे कार्य करने पर केवल दण्ड का ही प्रावधान नहीं था अपितु कार्यों के लिए पुरस्कार भी दिये जाते थे।
ब्रेडले के अनुसार, "हम दण्ड इसलिए भुगतते हैं कि हम इसके पात्र हैं, इसका कोई दूसरा कारण नहीं। इस सिद्धान्त में यह माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी की हत्या करता है तो उसके लिए उसे प्राणदण्ड मिलना चाहिए।
दण्ड के सिद्धान्त को लागू करने पर अपराधी यह मानता है कि दण्ड वस्तुतः उसी के कर्मों का फल है। तभी वह अपराधों से मुख मोड़ लेता है। वह अपराध से घृणा करने लगता है। दण्ड का यह सिद्धान्त प्रायः सभी आदिम समाजों में पाया जाता है।
इस सिद्धान्त की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भी प्रस्तुत की गई। इसके अनुसार, यह माना गया कि प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि वह किसी व्यक्ति के साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा व्यवहार वह व्यक्ति उसके साथ करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त का उद्गम स्थान मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है।
आलोचना - इस सिद्धान्त को वर्तमान समय में अनुचित माना गया है तथा इसकी निम्न प्रकार से आलोचना की गई है.
1. इस सिद्धान्त में अपराध के अनुपात का निर्धारण करना सम्भव नहीं होता। यदि व्यक्ति को किसी कारणवश अधिक या कम दण्ड दिया जाता है तो उसे अन्यायपूर्ण कहा जायेगा। साथ ही यह न्यायसंगत भी नहीं है।
2. इस सिद्धान्त को धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध भी कहा गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी के साथ किसी भी प्रकार की दया, सहानुभूति तथा क्षमा नहीं की जा सकती जिसे धर्म में उचित नहीं माना जा सकता।
3. इस सिद्धान्त में मात्र अपराध पर ध्यान दिया जाता है, अपराध किन परिस्थितियों में हुआ, इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
4. इस सिद्धान्त का उद्देश्य अपराधी व्यक्ति को केवल दण्ड द्वारा कष्ट देना ह जबकि यह उचित नहीं है। यह मानवीय दृष्टिकोण से अमानवीय तथा कष्टप्रद है।
5. कुछ विद्वानों के अनुसार इस दण्ड व्यवस्था से अपराधों की संख्या में कमी नहीं आती अपितु बदले की भावना बढ़ती रहती है।
अतः मानवीय दृष्टिकोण से दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त को उचित नहीं कहा जा सकता। यदि तटस्थ भाव से देखा जाय तो एक अनुचित कार्य का निराकरण दूसरे अनुचित कार्य से करना उचित नहीं कहा जा सकता।
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