बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत बीए सेमेस्टर-1 संस्कृतसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत
अध्याय - 6
नीतिशतकम् (श्लोक सं. 1-25)
व्याख्या भाग
प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए -
1. अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - कवि का कथन है कि मूर्ख पुरुष को सरलता से मनाया जा सकता है और विशेषज्ञ तो उससे भी अधिक सरलता से मनाया जा सकता है, परन्तु स्वल्पज्ञानी पुरुष को मनुष्य की तो बात ही क्या, ब्रह्मा भी नहीं मना सकते।
हिन्दी अनुवाद - न जानने वाला (अज्ञानी) सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है, विशेषज्ञ (विशेष रूप से जानकार तो) और अधिक सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है, परन्तु स्वल्प (थोडे) ज्ञान से पण्डित बनने वाले (पण्डितम्मन्य) मनुष्य को ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते।
संस्कृत व्याख्या -अज्ञः = मूर्ख, सुखं = सुखपूर्वकम्, अनायासनेत्यर्थ, आराध्यः = प्रसादनीय, विशेषज्ञ = समधिकविवेकी, सुखतरं = समधिकसुखपूर्वकम्, आराध्यते = प्रसाद्यते, (परन्तु) ज्ञानलवदुर्विदग्ध = स्वल्पबोधपण्डितम्मन्यम्, नरं = मनुष्यम्, ब्रह्मा अपि = विधिरपि, न रञ्जयति = नहि प्रसादयति अतिशयोक्तिरलङ्कारः आर्याच्छन्दः।
टिप्पणी - व्याकरण (क) समास - अज्ञ - न ज्ञ (नजतत्पुरुष)। विशेषज्ञ विशेषं जानातीति (षष्ठी तत्पुरुष), तेन दुर्विदग्धः (तृतीया तत्पुरुष). तम्।
(ख) प्रकृति प्रत्यय - ज्ञ - जानतीति - ज्ञा + का आराध्यः - आड् + राघ् + ण्यत् (कर्मणि)। विशेष + ज्ञा + क। सुखतरम् - सुख + तरप्। आराध्यते - आड् + राष् + यक् (कर्मणि) + लट् प्र0 पु0 ए0 व0। दुर्विदग्धम् दुर् + वि + दह् + क्त। रञ्जयति रञ्ज + णिच + लट् प्र0 पुरुष ए0 व0।
कोश - 'स्यादानन्दथुरानन्द, शर्मशातसुखानि च', 'मोक्षे धीर्ज्ञानम् 'ब्रह्मात्मभूः सुरज्येष्ठः परमेष्ठी पितामह अमरकोश।
विशेष - कवि का आशय यह है कि मूर्ख पुरुष को तो सरलता (आसानी से समझाया जा सकता है और विशेष ज्ञानी पुरुष को उससे भी अधिक सरलता से समझाया जा सकता है, परन्तु जो स्वल्प ज्ञान के द्वारा अपने को पण्डित समझ बैठा है, ऐसे पण्डितमानी पुरुष को तो ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते तो साधारण पुरुष की गणना ही क्या? अर्थात् स्वल्प ज्ञानी को समझा सकना अत्यन्त कठिन है। अल्पज्ञानी के लिए हिन्दी में भी कहा गया है - अधजल गगरी छलकत जाय। अतिशयोक्ति अलङ्कार लक्षण - 'सिद्धत्वेऽध्यवसायस्यातिशयोक्तिर्निगद्यते। आर्या छन्द है।
लक्षण - यस्याः पादे प्रथमे द्वादश मात्रास्तथा तृतीयेऽपि' अष्टादश द्वितीये चतुर्थके पञ्चदश सार्या।
2. प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्रान्तरा
त्समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम्।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारये-
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - महात्मा भर्तृहरि कहते हैं कि मनुष्य संसार में असम्भव कार्य भी संभव कर सकता है, यहाँ तक कि घड़ियाल की दाढ़ों के मध्य से मणि निकाल सकता है, विशाल समुद्र को भी पार कर सकता है, क्रुद्ध सर्प को भी पुष्प के समान मस्तक पर धारण कर सकता है परन्तु मूर्ख के चित्त को नहीं मना सकता।
हिन्दी अनुवाद - (मनुष्य) मगर (घडियाल) के मुख की दादों के बीच से बलपूर्वक मणि को निकाल सकता है, चञ्चल तरङ्गों के समूह से व्याप्त समुद्र को भी पार कर सकता है, क्रुद्ध किये गये (छेड़े गये) सर्प को भी सिर पर पुष्प की तरह धारण कर सकता है, परन्तु दुराग्रहयुक्त (हठी) मूर्ख मनुष्य के चित्त को नहीं मना सकता।
संस्कृत व्याख्या - (जनः = मनुष्य), मकरवक्रदंष्ट्रान्तरात् = ग्राहमुखाग्रदन्तमध्यात्. प्रसा = हठात् मणि = रत्नम् उद्धरेत् = निष्कासयितुं समर्थः स्यात्। प्रचलदूर्मिमालाकुल = प्रसस्तरङ्गसमूहव्याप्तम् समुद्रमपि = सागरमपि सन्तरेत् = तीर्त्वा पारं गच्छेत् कोपितं = क्रोधवशमानीतम् भुजङ्गमपि = सर्पमपि शिरसि = मस्तके पुष्पवत् = कुसुमवत् धारयेत् = धारयितुं शक्नुयात तु = परन्तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्त = दुराग्रहाविष्टाज्ञमनुष्यमानसम् न आराधयेत् = न सन्तोषयितुं प्रभवेत्। अतिशयोक्तिरलङ्कारः। पृथ्वीवृत्तम।
टिप्पणी - व्याकरण (क) समास - मकरवक्रदष्टान्तरात् मकरस्य वक्र मकरवक्त्रम (पाटी तत्पुरुष), तस्मिन् दंष्ट्रा मकरवक्रदंष्ट्रा तासाम् अन्तर (षष्ठी तत्पुरुष) तस्मात् प्रचलदूर्मिमालाकुलम् प्रचलन्त्यः ऊर्मयः प्रचलदूर्मयः तेषा मालाः ताभि आकुलम् (तृतीया तत्पुरुष)। प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तम् प्रतिनिविष्ट:, मूर्खजन प्रतिनिविष्टमूर्खजन (कर्मधारय) तस्य चित्तम्, (षष्ठी तत्पुरुष)।
(ख) प्रकृति प्रत्यय - मकर: कृणाति कृहिंसायाम् पचाद्यच् (कृ + अच् = कर मनुष्याणा करः (पृषोदरादित्वात) मकरः। अथवा मक राति मक + रा + का दंष्ट्रा दश्यते अनया देश + न् + टाप्। प्रसह्य प्र + सह् + क्तवा ल्यप्। उद्धरेत् उत् + ह् + वि0 लिङ् प्र0 पु0 ए0 व0। प्रचलत् - प्र + चल् + शतृ। सन्तरेत् सम् + तृ + वि0 लिड् प्र0 पु0 ए0 60 कोपित कुप + + का भुजङ्गम् - भुज कुटिल गच्छतीति भुज + गम् + खच्। पुष्पवत् पुष्येण तुल्यम् पुष्प + वत् (तेन तुल्य क्रिया चेद्वति )। धारयेत् धृ + णिच् + वि0 लिड् प्र0 पु0 ए0 व0। प्रतिनिविष्ट प्रति + नि + विश् + क्त मूर्ख - मुह्यतीति - मुह् + ख तथा मुह को मूर आदेश (मुह खो मूर्च)। आराधयेत् - आङ् + राध् + णिच् + वि0 लिड् प्र0 पु0 ए0 व0।
कोश - 'मकरो निधौ' नक्रे राशित्रिशेषे च' हेमचन्द्र वक्तास्यै वदन तुण्डमानन लपन मुखमम्', भङ्गस्तरङ्ग ऊर्मिर्वा स्त्रियाँ वीचि, 'सर्प: पृदाकुर्भुजगो भुजङ्गोऽहिर्मुजङ्गमः - अमरकोश।
विशेष- कवि के कथन का भाव यह है कि मनुष्य चाहे तो भयङ्कर घडियाल के मुख की डाढ़ों के बीच में स्थित मणि को निकाल सकता है, विशाल जल राशि वाले अगम्य सागर को भी तैर कर पार कर सकता है और यहाँ तक कि क्रुद्ध सर्प को अपने मस्तक पर फूल की तरह धारण कर सकता है, परन्तु मूर्ख मनुष्य के हठी चित्त को नहीं मना सकता है अर्थात मनुष्य संसार में असम्भव को भी संभव कर सकता परन्तु मूर्ख के हृदय को नहीं बदल सकता। गोस्वामी तुलसीदास भी लिखते हैं- 'मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहि विरञ्चि सम तथा - 'उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये। अतिशयोक्ति अलङ्कार है। पृथ्वी छन्द है।
लक्षण - 'जसयला जयसला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरु।
3. लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्चमृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत्
नतुतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराध्येत॥
संदर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - महात्मा भर्तृहरि का कथन है कि मनुष्य प्रयत्नों के द्वारा बालू में भी तेल प्राप्त कर सकता है। मृगतृष्णा में भी जल पी सकता है. भ्रमण करते हुए खरगोश के सींग प्राप्त कर सकता है परन्तु मूर्ख पुरुष के हठी मन को नहीं मना सकता।
हिन्दी अनुवाद - मनुष्य प्रयत्नपूर्वक पेरते हुए बालू मे भी तेल प्राप्त कर सकता है, प्यास से व्याकुल होने पर मृगतृष्णा में भी जल पी सकता है. भ्रमण करते हुए कदाचित् खरगोश का सीग प्राप्त कर सकता है। परन्तु दुराग्र युक्त (हठी) मूर्ख मनुष्य के चित्त को नहीं मना सकता।
संस्कृत व्याख्या - (जन = मनुष्यः). यत्नतः = प्रक्षत्नपूर्वकम्, पीडयन् = मर्दयन् , सिकतासु अपि = बालुकायामपि, तैल = स्नेहम्, लभेत = प्राप्तुं, शक्नुयात् पिपासार्दितः = तृष्णाकुलः च, मृगतृष्णिकासु = मरीचिकासु, सलिल = लम् पिबेत = पातुं, शक्नुयात् पर्यटन् = इतस्ततो भ्रमन, कदाचित् = जातु, शशविषाण = शशकशृङ्गम् , आसादयेत् = प्राप्तु शक्नुयात्, तु = परन्तु, प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित = दुराग्रहयुक्तमूर्खमनुष्यमानसम् , न आराधयेत्न = न प्रसादयितुं प्रभवत्। पृथ्वी वृत्तम्।
4. व्यालं बालमृणालतन्तुभिरसी रोदधुं समुज्जृम्भते
छेत्तुं वजमणि शिरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यति।
माधुर्य मधुविन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते
नेतुं वाञ्छति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः॥
संदर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - मूर्ख पुरुष को सन्मार्ग पर लाना अत्यन्त कठिन है। जो सत्पुरुष अमृतसर सदृश मधुर वचनों के द्वारा दुष्टों को सन्मार्ग पर लाना चाहता है वह मानों कमलनाल के तन्तुओं से गज को बाँधने की चेष्टा करता है, शिरीषकुसुम के अग्रभाग से हीरा को काटना चाहता है तथा बिन्दुमात्र मधु से सागर को मीठा करना चाहता है।
हिन्दी अनुवाद - जो (पुरुष) अमृत (रस) टपकाने वाले सुभाषितों के द्वारा दुष्टों को सज्जनों के मार्ग पर लाना चाहता है वह कोमल कमलनाल के तन्तुओं (सूत्रों) के द्वारा उन्मत्त हाथी को बांधने की चेष्टा करता है. शिरीष प्रसून के अग्रभाग से हीरे को काटने के लिए समुद्यत (तैयार) होता है और मधु (शहद) की एक बूंद के द्वारा खारे समुद्र में मिठास पैदा करना चाहता है।
संस्कृत व्याख्या - य = मनुष्यः सुधास्यन्दिभिः = पीयूषस्राविभिः सूक्ते. = सुभाषितैः खलान् = दुष्टान्, सतां = सज्जनानाम् , पथि = मार्गे, नेतुं = प्रापयितुम, वाञ्छति = इच्छति, असौ = पुरुषः, बालमृणालतन्तुभिः = कोमलबिससूत्रै, व्यालं = दुष्टगजम्, रोद्धुं = नियन्तुम्, समुज्जृम्भते चेष्टते, शिरीषकुसुमप्रान्तेन = शिरीषप्रसनाग्रभागेन, वज्रमणि = हीरकम्, छेत्तुं = भेत्तुम्, सन्नह्यति = समुद्यतो भवति, मधुबिन्दुना = क्षौद्रबिन्दुना, क्षाराम्बुधेः = लवणसागरस्य, माधुर्य = मधुरताम्, रचयितुं = सम्पादयितुम्, ईहते = कामयते। मालानिदर्शनालङ्कारः। शार्दूलविक्रीडित छन्दः।
व्याकरण (क) समास बालमृणालतन्तुभिः + बाल च तद् मृणालञ्चेति बालमृणालम् (कर्मधारय). बालमृणालस्य तन्तवः (ष0 त0) तैः। शिरीषकुसुमप्रान्तेन - शिरीषकुसुमस्य प्रान्तेन (ष0 त0)। क्षाराम्बुधे:- क्षारश्वासौ अम्बुधि: तस्य (कर्मधारय )।
(ख) प्रकृतिप्रत्यय - सुधास्यन्दिभिः - सुधा स्यन्दते इति - सुधा + स्यन्द + णिनि (कर्तरि ) = सुधारयन्दीनि तैः। सूक्तैः सु + वच् + क्त (भावे) करण में तृतीया। रोदधुम् रुध् + तुमुन्। समुज्जृम्भते सम् + उत् + जृम्भ + लट् प्र0 पु0 ए0 व0। छेत्तुम् - छिद् + तुमुन्। सन्नह्यति - सम् + नह + लट् प्र0 पु0 ए0 प्र0। अम्बुधिः + अम्बूनि धीयन्ते अस्मिन् इति अम्बु + धा + कि। माधुर्यम् - मधुरस्य भावः - मधुर + ष्यञ्। रचयितुं रच + णिच् + तुमुन्। ईहते ईह् + लट् प्र0 पु0 ए0 व0।
कोश - 'पीयूषममृत सुधा', 'अयन वर्त्ममार्गाऽध्वपन्थानः पदवी सृतिः' अमरकोश। 'व्यालो दुष्टगंजे सर्पे - विश्वप्रकाशकोश' 'मृणाल बिसम् 'मधु क्षौद्रं माक्षिकादि' - अमरकोश।
टिप्पणी - कवि का भाव यह है कि दुर्जन को किसी भी प्रकार सन्मार्ग में प्रवृत्त नहीं किया जा सकता है। अन्यत्र भी कहा गया है.'सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्वात् क्रूरतरः खलः। मणिमन्त्रीषधिवशः सर्पः खलः केन निर्वायते॥
मालानिदर्शनालङ्कार है। शार्दूलविक्रीडित छन्द।
लक्षण - 'सूर्याश्वर्मसजस्तता: सगुरवः शार्दूलविक्रीडतम्।
5. स्वायत्तमेकान्त गुणं विधात्रा
विनिर्मितं छादन मज्ञतायाः।
विशेषतः सर्व विदां समाजे
विभूषणं मौनमपंडितानाम्।।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - कवि का कथन है कि मौन रहना मूर्खों के लिए अत्यधिक लाभप्रद है। मौन मूर्ख पुरुषों का आभूषण है।
अनुवाद - विधाता ने मूखों के अपने अधीन रहने वाले और नियम से (सदैव) लाभ पहुँचाने वाले मौन को मूर्खता (अज्ञानता) का आवरण बनाया है जो (मौन) विद्वानों के समाज में (मूर्खों के लिए) विशेष रूप से आभूषण स्वरूप हो जाता है।
संस्कृत व्याख्या- विधात्रा = विधिना, अपण्डितानां = मूर्खणाम्, स्वायतं = स्वाधीनम्, एकान्तगुणं = नियमेन गुणकारि, मौनं = तूष्णी भावः, अज्ञातायाः = मूर्खताया, छादनं = आवरणम्, विनिर्मित विरचितम्. (इदं = एतद् मौनम्), सर्वविदां = पण्डितानाम्, समाजे = सभायाम्, विशेषतः = विशेषरूपेण, विभूषणं भवति = अलंकारों भवति। अनुप्रासोऽलङ्कारः। उपजातिर्वृत्तम्।
6. यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - कवि कहता है कि मूर्ख पुरुष को विद्वज्जनों के संपर्क में आने से अपनी अल्पज्ञता का बोध होता है। अल्पज्ञ पुरुष जब तक विद्वानों के समीप नहीं पहुँचता है तब तक अपने को पण्डित समझता रहता है और विद्वानों के समीप पहुंच कर वह यह समझ लेता है कि मैं मूर्ख हूँ।
हिन्दी अनुवाद - जब मैं अल्पज्ञ था और हाथी के समान मद से अन्धा हो गया था उस समय में सर्वज्ञ हूँ यह समझकर मेरा मन अभिमान से चूर था. (परन्तु जब बुधजनों के संसर्ग से कुछ-कुछ जानने- लगा उस समय मैं मूर्ख हूँ, यह सोचकर मेरा मद (अहङ्कार) ज्वर के समान उतर गया (भष्ट हो गया)।
संस्कृत-व्याख्या - यदा = यस्मिन काले, अह, किञ्चिज्ज्ञ = अल्पज्ञः, द्विप इव = हस्ती यथा, मदान्धः = दर्पान्धः समभवं = सञ्जातः, तदा = तस्मिन्, काले, सर्वज्ञः = अशेषज्ञ, अस्मि इति = एवं विचिन्त्य, मम = मे मनः = चेतः, अवलिप्तं = गर्वोपेतम् अभवत् = अजायत, यदा = यस्मिन् काले, बुधजनसकाशाद = पण्डितजनसम्पर्कात्, किञ्चित् किञ्चित् = अल्पम्, अल्पम्, अवगतं = ज्ञातम्, तदा = तस्मिन् काले, मूर्खः = मूढ, अस्मि, इति एवं विचिन्त्य, मे = मम, मदः = दर्पः, ज्वरः इव = व्याधिरूपशरीरस्य ज्वरः इव, व्यपगतः = नष्टः। उपमालङ्कारः। शिखरिणी वृत्तम्।
व्याकरण - (क) समास मदान्धः मदेन अन्धः (तृ0 त0)। बुधजनसकाशात् बुद्धजनाना सकाशात् ( ष0 त0)।
(ख) प्रकृति प्रत्यय - किञ्चिज्ज्ञ जानाति इति - किञ्चित् + ज्ञा + क। द्विपः - द्वाभ्यां शुण्डमुखाभ्यां पिबति इति द्वि + पा + क। सर्वज्ञ - सर्व जानातीति - सर्व + ज्ञा + क। अवलिप्तः- अव + लिप् + क्त। बुधः - बुध् + क। अवगत अव + गम् + क्त। व्यपगतः वि + अप + गम् + क्त ।
कोश - 'दन्ती दन्तावलो हस्ती द्विरदोऽनेकपो द्विपः', 'विद्वान् विपश्चिद्दोषज्ञः सन्सुधीकोविदो बुधः। अमरकोश' 'अवलेपस्तु गर्वे स्याल्लेपने दूषणेऽपि च' इति कोशः।
टिप्पणी - कवि कहता है कि विद्वज्जनों के संसर्ग से ही अपनी अल्पज्ञता का ज्ञान होता है। जब मैं अल्पज्ञ था तो हाथी के समान मदान्ध होकर मैं ही सर्वज्ञ हूँ, इस प्रकार अभिमान से चूर था परन्तु जब विद्वज्जनों की संगति से कुछ-कुछ समझने लगा और तब यह विचार कर कि मैं मूर्ख हूँ, मेरा अहङ्कार नष्ट हो गया। अल्पज्ञ पुरुष के स्वभाव का स्वाभाविक चित्रण होने से स्वभावोक्ति अलङ्कार है। स्वभावोक्ति का लक्षण - 'स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम्। उपमा भी है।
लक्षण - 'साधर्म्यमुपमा भेदे शिखरिणी छन्द है। 'रसै रुद्रैश्च्छिन्ना यमनसभला गः शिखरिणी।'
7. कृमिकुलचितं लालाक्लित्रं विगग्धि जुगुप्सितं
निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम्।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
न हि गणयति क्षुद्रोजन्तुः परिग्रहफल्गुताम्॥
संदर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - महाकवि भर्तृहरि का कथन है कि क्षुद्र पुरुष ग्रहण की गयी वस्तु की तुच्छता पर ध्यान नहीं देता है और इस प्रकार उसका परित्याग नहीं करता है।
हिन्दी अनुवाद - कुत्ता, कीड़ों के समूह से व्याप्त, लार से भीगी हुई दुर्गन्ध युक्त, घृणित और मांस रहित मनुष्य की हड्डी को बड़े चाव से खाता हुआ समीप में स्थित इन्द्र को भी देखकर शङ्का (लखा) नहीं करता है। ठीक ही है कि क्षुद्र प्राणी ग्रहण की गयी वस्तु की निस्सारता (तुच्छता) पर ध्यान नहीं देता है।
संस्कृत व्याख्या - श्वा = कुकुर, कृमिकुलचित = कीटसमूहव्याप्तम्, लालाक्लिन्न = लालया सृविकण्या क्लिन्नम, आर्द्रम, विगन्धि = दुर्घन्धि, जुगुप्सितं = घृणास्पदम् , निरामिष = मासरहितम्, नरास्थि = मनुष्यकीकसम्, निरुपमरस, प्रीत्या = अपूर्वस्वादप्रेम्णा, खादन = भक्षयन्, पार्श्वस्थ = समीपस्थम्, सुरपतिम् अपि इन्द्रमपि, विलोक्य = अवलोक्य, न शङ्कते = न लज्जते, हि तथा हि युक्तमेव क्षुद्र = तुच्छ, जन्तु = प्राणी, परिग्रहफल्गुता = स्वीकृतवस्तुनिस्सारताम्, न गणयति = न विचारयति। अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः। हरिणी वृत्तम्।
व्याकरण - (क) समास - कृमिकुलचित = कृमीणा कुलानि (ष त), तैः चितम् (तृ त.)। लालाक्लिन्नम - लोलया क्लिन्नम् (तू. त.)। निरामिषम् निर्गतम् आमिष यस्मात् तत् (प्रादि बहुव्रीहि)। नरास्थि - नराणाम अस्थि (ष त.)। निरुपमरसप्रीत्या - निः नास्ति उपमा यस्य स निरुपमा (प्रादि बहुव्रीहि)। निरुपम: रसः निरूपमरस. (कर्मधारय) निरुपभरसे प्रीति (स. त.) तया। सुरपव्री - सुखा पतिम् (षत )। परिग्रहफल्गुतां परिग्रहस्य फल्गुताम्।
(ख) प्रकृति प्रत्यय - श्वा शिव + कनिन्। चितम् चि + क्त। क्लिन्नम् क्लिद् + क्त। विगन्धिः विगत गन्धः यस्य तत् (बहुव्रीहि)। जुगुप्सितम् - गुप्त (कर्मणि)। प्रीतिः प्री + क्तिन्। खादन् - खाद् + शतृ। पार्श्वस्थम् पार्श्वे तिष्ठतीति - पार्श्व + स्था + क (सुपि स्थः)। विलोक्य वि + लोक् + क्तवा - ल्यप्। परिग्रह - परि - ग्रह् + अप्। फल्गुता - फल्गु + तल् + टाप्। गणयति - गण धातु लट् प्र. पु. ए. व।
कोश - 'सृणीका स्यन्दिनी लाला', 'कीकस कुल्यमस्थि च 'त्रिदशा विबुधाः सुरा', 'पत्नीपरिजनादानमूलशापा परिग्रहाः', 'असार फल्गु अमरकोश।
टिप्पणी - कवि का भाव यह है कि क्षुद्रप्राणी निःसार वस्तु को अपनाकर भी छोड़ता नहीं है। जैसे कीडो तथा लार से परिपूर्ण, दुर्गन्धित, घृणित तथा मासरहित हड्डी को अत्यधिक चाव से खाता हुआ कुत्ता समीप में खड़े हुए इन्द्र को भी देखकर लज्जा नहीं करता है। अर्थान्तरन्यास तथा अप्रस्तुतप्रशसा अलंकारों का संकर है।
अर्थारन्तरन्यास - 'सामान्य वा विशेषेण विशेषस्तेन वा यदि। कार्यं च कारणेनेदं कार्येण च समर्थ्यते। साधर्म्येणेतरेणार्थान्तरन्यासोऽष्टधा ततः।
अप्रस्तुतप्रशंसा - 'क्वचिद्विशेष: सामान्यात्सामान्य वा विशेषतः। कार्यान्निमित्तं कार्यं च हेतोरथ समात्समम्। अप्रस्तुतात्प्रस्तुतं चेद् गम्यते पञ्चधा ततः। अप्रस्तुतप्रशंसा स्यात्। हरिणी छन्द है।
लक्षण - 'रसयुगहयैन्सी म्रौ स्लौ गौ यदा हरिणी तदा।
8. शिरः शार्व स्वर्गात् पशुपतिशिरस्तः क्षितिधर
महीधादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम्।
अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथवा
विवेकभ्रष्टानाभवतिविनिपातः शतमुखः॥
संदर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - महाकवि भर्तृहरि यहाँ यह प्रतिपादित कर रहे हैं कि अविवेकी पुरुषों का अनेक प्रकार से पतन होता है। इस सबंध में वे गड्ढा का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
हिन्दी अनुवाद - यह गङ्गा स्वर्ग से (गिरकर) शिव के मस्तक पर (पहुँची), शिव के मस्तक से (हिमालय) पर्वत पर (पहुँची). अत्युच्च (हिमालय) पर्वत से पृथ्वी पर (पहुँची) और पृथ्वी से समुद्र में (पहुँची। इस प्रकार क्रमशः नीचे से नीचे छोटे स्थान को प्राप्त होती गयी अथवा विवेक से भ्रष्ट लोगो का सैकड़ों प्रकार से पतन होता है।
संस्कृत व्याख्या - इयं = एषा, गङ्गा = भागीरथी, स्वर्गात् = त्रिदशालयात्, शार्व = शङ्करसम्बन्धि शिर = मस्तकम्, पशुपतिशिरस्तः = शङ्करमस्तकात, क्षितिघर = हिलायाख्य पर्वतम् उत्तुङ्गात् अत्युच्चात् महीधात = पर्वतात्, अवनिं = धराम्, अवने चापि = पृथिव्याश्चापि, जलधिं = सागरम्, अधोऽधः = एवं क्रमेण नीचे-नीचे, स्तोक = अल्पम् पदं = स्थानम्, उपगता = प्राप्ता, अथवा वा, विवेकभ्रष्टानां = विवेकच्युतानां जनानाम्, शतमुख = बहुविधः, विनिपातः = अधः पात, भवति = जायते। अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः। शिखरिणी वृत्तम्।
व्याकरण - (क) समास - पशुपतिशिरस्त विवेकभ्रष्टानां = विवेकात् भ्रष्टाः विवेकभ्रष्टातेषाम्। शतमुखः
पशूनां पतिः तस्य शिरः तस्मात् (प.त.)। शतं मुखानि यस्य सः (बहुव्रीहि )।
(ख) प्रकृति प्रत्यय - शावं -शर्वस्य इदम् इति शर्व = अण्। पशुपतिशिरिस्तः - पशुपतिशिरस् + तसि। क्षितधर - धरतीति धर धृ + अच, क्षिते. घर क्षितिघर, तम्। महीधात् = मही धरतीति महीध तस्मात्। मही + धृ + क। 'मूलविभुजादिभ्य क' से क प्रत्यय। जलधिं जलानि धीयन्ते अस्मिन् इति जल + धा + कि उपगता उप + गम् क्त + टाप्। विवेक वि + विच् + घञ् (भावे)। अष्ट भ्रंश् -क्त। विनिपातः वि + नि + पत् + घञ।
कोश - 'स्वरव्यय स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयाः', 'ईश्वरः शर्व ईशान: शम्भुरीशः पशुपति', 'गोत्रा कुः पृथिवी क्षमाऽवनिर्मेदिनी मही- अमरकोश |
टिप्पणी - कवि के कथन का तात्पर्य यह है कि विवेक से भ्रष्ट पुरुषों का सैकड़ों प्रकार से अध पतन होता है। विवेक से भ्रष्ट होकर गंगा जी ने विचार किया कि मैं अपनी प्रबल धारा से भगवान शिव को बहा दूँगी। इसका परिणाम यह हुआ कि वे स्वर्ग से गिरकर शङ्कर जी के मस्तक पर पहुँची, शङ्कर जी के मस्तक से हिमालय पर्वत पर, हिमालय से पृथ्वी पर और पृथ्वी से समुद्र में पहुँची। इस प्रकार निम्नगा हो गयीं। गंगा - यहाँ प्रयुक्त गंगा पद व्यञ्जक है। यह व्यञ्जकता इस व्युत्पत्ति से प्रकट होती है- 'गम्यते ब्रह्मपदम् अनया इति गंगा। कहाँ तो गंगा जी के द्वारा लोगो को ब्रह्मपद की प्राप्ति करायी जाती है और कहाँ विवेक से भ्रष्ट होने के कारण उन्हें स्वयं निम्नगा होना पड़ा। गंगा के संबंध में पौराणिक कथा इस प्रकार है- सूर्यवंश के वर्चस्वी राजा भगीरथ ने अपने पितामहो (सगर के साठ हजार पुत्रों) के उद्धार के लिए गंगा जी की तपस्या की। उनसे संतुष्ट होकर गंगाजी ने इस शर्त पर पृथ्वी पर आना स्वीकार कर लिया कि कोई उनकी शक्ति सहन कर ले। भगीरथ ने भगवान शिव की उपासना कर उन्हें इसके लिए राजी कर लिया। भगवती गंगा बड़ी तेजी से स्वर्ग में गिरीं। भगवान् शिव ने उन्हें अपनी जटा में ही रोक लिया। पुनः राजा भगीरथ की प्रार्थना पर उन्होंने गंगा को अपनी जटाओं से मुक्त किया तब वे हिमालय पर पहुँची, हिमालय से पृथ्वी पर और पृथ्वी से समुद्र में गिरीं। समुद्र की ओर जाते समय सगर पुत्रों की अस्थियो का स्पर्श कर उनका उद्धार किया। प्रस्तुत श्लोक में पर्याय तथा अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है। शिखरिणी छन्द है।
9. हर्तुर्याति ना गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा
प्यार्थिभ्यः प्रतिपाद्यमा नमनिशं प्राप्नोति बुद्धिं पराम्।
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धनं
येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः! कस्तैः सह स्पर्धते॥
संदर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग – महात्मा भर्तृहरि कहते हैं कि विद्या धन सर्वोत्कृष्ट है। अतः विद्वानों के प्रति अहङ्कार के भाव का परित्याग कर उनका समादर करना चाहिए।
हिन्दी अनुवाद - जो ( विद्यारूपी धन ) चोर के (भी) दृष्टिपथ पर नहीं आता, सर्वदा किसी (अनिर्वचनीय) कल्याण को पुष्ट करता है (बढ़ाता है), याचकों को निरन्तर दिया जाता हुआ भी परम बुद्धि को प्राप्त होता है और कल्पान्त (प्रलयकाल) होने पर भी नष्ट नहीं होता (वह) विद्या नाम गुप्त धन जिनके पास है, उनके प्रति ऐ राजाओं। अभिमान का परित्याग कर दो। उनके साथ कौन स्पर्धा कर सकता है?
संस्कृत व्याख्या - यत् = विद्याख्यं धनम्, हर्तुः = चौरस्य, गोचर = नेत्रपथम्, न याति = नहि गच्छति, सर्वदा = सदा, किमपि = अनिर्वचनीयम्, शं = कल्याणम्, पुष्णाति = तनोति, अर्थिभ्यः = याचकेभ्य, अनिश = सततम्, प्रतिपाद्यमानमपि = दीयमानमपि, परां महतीतम् वृद्धिं = उन्नतिम् , प्राप्नोति = लभते, कल्पान्तेषु अपि = प्रलयकालेष्वपि, निधन = विनाशम्, न प्रयाति = नहि गच्छति, (तत्) विद्याख्य विद्यानामकम्, अन्तर्धन = गुप्त वित्तम्. येषा = जनानाम् (समीपे विद्यते), तान् प्रति = विदुषः प्रति, नृपाः = राजानः, मानं = दर्पम्, उज्झत = परित्यजत, क = जनः, वैः सह = बुधैः सह, स्पर्धते = अभिभवेच्छा करोति, न कोऽपीति भावः। व्यतिरेकोऽलङ्कारः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्।
व्याकरण - (क) समास- कल्पान्तेषु कल्पानाम् अन्ताः कल्पान्ताः (ष. त.) तेषु। विद्याख्याम् - विद्या आख्या यस्य तत् (बहुव्रीहि)। अन्तर्धनम् अन्तर्गत धनमिति (मध्यमपदालोपीस)।
(ख) प्रकृति प्रत्यय - हर्तु हृ + तृच् (ष ए. व.)। गोचरम् गाव चरन्ति अस्मिन् इति - गो + चर + घ। अर्थिभ्यः अर्थ + इनि (सम्प्रदाने चतुर्थी)। प्रतिपाद्यमानम् प्रति + पद + णिच् + शानच्। विद्या विद् + क्यप् + टाप्। उज्झत उज्झ + लट् म. पु. ए. व स्पर्धते - स्पर्धन + लट् प्र. पु. ए. व।
कोश - 'सततानारताश्रान्तसन्तताविरतानिशम्', 'साकं सार्द्ध सम सह' अमरकोश।।
टिप्पणी - कवि का तात्पर्य यह है कि संसार में विद्या धन सर्वोत्कृष्ट है। यह चोरों के द्वारा चुराया नहीं जा सकता, दान करने पर घटता नहीं अपितु समृद्धि को प्राप्त होता है, सदैव कल्याण को बढ़ाता है, तथा प्रलय की स्थिति में भी नष्ट नहीं होता। यह विद्या नामक गुप्त धन जिनके पास है उनके प्रति अभिमान रखना व्यर्थ ही है। उनके साथ कौन स्पर्धा कर सकता है? अर्थात् उनसे कोई भी स्पर्धा नहीं कर सकता। यहाँ काकु है।
लक्षण - भिन्नकण्ठध्वनिर्धीरैः काकुरित्यभिधीयते। व्यतिरेक तथा विरोधाभास अलंकार है। व्यतिरेक 'उपमानाद् यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव स। तुलना कीजिए -
न चौर्यहार्य न च भ्रातृभाज्यं न राजहार्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धते एवं नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।
10. क्षान्तिश्चेत् कवचेन किं किमरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद् देहिनां
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधैः किं फलम्।
किं सर्पेर्यदि दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या यदि
व्रीनडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम्॥
संदर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - सम्प्रति कवि धनादि की अपेक्षा विद्या की प्रधानता (उत्कृष्टता) का प्रतिपादन कर रहे हैं।
हिन्दी अनुवाद - मनुष्यों में यदि क्षमा है तो कवच से क्या (प्रयोजन). यदि क्रोध है तो शत्रुओं से क्या (प्रयोजन) यदि कुटुम्बी लोग हैं तो अग्नि से क्या प्रयोजन, यदि मित्र हैं तो श्रेष्ठ औषधियों से क्या प्रयोजन, यदि दुष्ट लोग हैं तो सांपों से क्या (प्रयोजन), यदि निर्दोष (प्रशंसनीय) विद्या है तो धन से क्या (प्रयोजन). यदि लज्जा है तो आभूषणों से क्या (प्रयोजन). यदि सुन्दर कविता (करने की शक्ति) है तो राज्य से क्या (प्रयोजन)?
संस्कृत व्याख्या - देहिनां = प्राणिनाम्, क्षान्ति चेत् = क्षमा यदि (अस्ति तर्हि), कवचेन = वर्मणा, किं =
= किम्प्रयोजनम् , क्रोधः = कोपः, चेदस्ति = चेद्वर्तते, अरिभिः किं = शत्रुभिः किम्, ज्ञातिः चेत् = दायादः चेतु, अनलेन किं = पावकेन किम्, यदि सुहृद् = सखा चेत् दिव्यौषधैः = दिव्यमेषजैः, किं फल = कि प्रयोजनम्, यदि दुर्जना = असाधवश्चेत्, सर्पे: = उरगे:, किम्, यदि अनवद्या विद्या = निर्दोष ज्ञानम्, धनैः कि = वित्तै किम, व्रीडा चेत् = यदि लज्जा, भूषणै किंं = अलङ्कारै किम्, यदि, सुकविता = सुन्दरकवित्वम्, राज्येन किम् = लोकाधिपत्वेन किं प्रयोजनम्, न किमपि प्रयोजनमिति भाव। अत्र काकुः। शार्दूलविक्रीडित वृत्तम्।
व्याकरण - (क) समास सुहृत - शोभनं हृदयं यस्य सः (बहुव्रीहि) दिव्यौषधै = दिव्यानि औषधानि दिव्योपधानि, तैः (कर्मधारय)। अनवद्या - नवद्या (नञ् तत्पुरुष)।
ख) प्रकृति प्रत्यय - देहिनाम- देह येषामस्ति ते देहिन तेषाम् - देह + इनि। क्षान्ति - क्षम् + क्तिन (भावे)। कवचेन किम - यहाँ गम्यमानापि क्रिया कारक विभक्तौ प्रयोचिका से तृतीया। ज्ञातिः - ज्ञा + क्तिच्। अनवद्या -- न (अ) + वद् + यत + टाप् = अवद् या, न अवद्या = अनवद्या। सुकविता - शोभन कविः सुकवि' सुकवे भाव - सुकवि + तल + टाप्। राज्येन राज्ञ भावः कर्म वाराजन + यत्।
कोश - तनुत्रं वर्मदशनम् 'उरश्चन्द्रः कङ्कटको जगर कवचोऽस्त्रियाम् 'कोपक्रोधाऽमर्षरोषप्रतिधा' 'सर्प पृदाकुर्भुजगो भुजङ्गाऽहिर्भुजङ्गम' - अमरकोश।
टिप्पणी - महात्मा भर्तृहरि का कथन है कि यदि मनुष्य के पास क्षमागुण है तो कवच का कोई प्रयोजन ही नहीं। यदि क्रोध है तो शत्रुओ का क्या प्रयोजन? क्रोध ही शरीर को कष्ट पहुँचाने के लिए पर्याप्त हैं यदि कुटुम्बी (दायाद) है तो अग्नि की क्या आवश्यकता, वे ही जलाने के लिए पर्याप्त है। यदि मित्र है तो औषधियो का क्या प्रयोजन? सच्चे मित्र औषधियों से अधिक सुख शान्ति प्रदान करते हैं। यदि दुष्ट हैं तो सर्पों का क्या प्रयोजन दुष्ट पुरुष सर्पों से भी अधिक दुःखदायी होते है। यदि निर्दोष विद्या है तो धन से क्या प्रयोजन? विद्या ही सर्वोत्कृष्ट धन है। लज्जा ही पुरुष का सर्वोत्तम आभूषण है तथा सुन्दर कवित्व शक्ति के समक्ष राज्य भी कुछ नहीं है। यहाँ सर्वत्र काकु है। शार्दूलविक्रीडित छन्द है।
11. दाक्षिण्यं स्वजने दया परिजने शाठ्य सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने नयो नृपजने विद्वज्जने चार्जवम।
शौर्य शत्रु जने क्षमा गुरुजने कान्ताजने धृष्ठता
ये चैव पुरुषाः कलासुकुश लास्तेष्वेक लोकस्थितिः॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कवि कुशल पुरुषों की प्रशंसा करता है।
हिन्दी अनुवाद - अपने लोगों पर उदारता, सेवकों पर दया, दुष्टों के साथ सदा शठता सज्जनों के साथ प्रीति, राजाओं के प्रति भीति विद्वानों के प्रति शौर्य, गुरुजनों के प्रति सहनशीलता स्त्रियों के प्रति धृष्टता (दिखाते हुये) जो पुरुषों कलाओं में कुशल है, उन्हीं पर लोक की स्थिति है (अर्थात संसार टिका हुआ है)।
12. जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति
सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम्।।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - महात्मा भर्तृहरि सत्संगति के महत्त्व का प्रतिपादन कर रहे हैं।
हिन्दी अनुवाद - सत्संगति बुद्धि की जड़ता को हरती है, वाणी में सत्यता को स्थापित करती है, सम्मान को बढ़ाती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और दिशाओं में कीर्ति को फैलाती है। कहो सत्संगति मनुष्यों के लिए क्या नहीं करती है।
संस्कृत व्याख्या - धिय: = धिषणाया, जाड्यं = मौर्यम्, हरति = दूरीकरोति, वाचि = वाण्याम्, सत्यम् = तथ्यम्, सिञ्चति = क्षरति, मानोन्नति = समादरवृद्धिम्, विशति = प्रयच्छति, पाप = अधम्,
अपाकरोति = दूरीकरोति, चेत = चित्तम्, प्रसादयति = निर्मलयति, दिशु = आशासु, कीर्ति = यश, तनोति = विस्तारयति, कथय = वद, सत्सङ्गतिः = सत्सङ्ग, पुसां = पुरुषाणाम् , किं न करोति = कि न विदधाति। अर्थोन्तरन्यासोऽलङ्कारः। वसन्ततिलकं वृत्तम्।
व्याकरण - (क) समास - मानोन्नतिम् - मानस्य उन्नतिम (ष0 त0) सत्सङ्गति - सता सङ्गति: (प0 त0) || 23 ||
(ख) प्रकृति प्रत्यय - जाड्यम - जडस्य भावः जड + ष्यञ्। हरति हृ + लट्, प्र0 पु0 ए0 व0। मान- मन् + घञ्। उन्नति. - उत् + नम् + क्तिन्। प्रसादयति प्र + सद् + णिच्। लट् प्र0 ए0 ब0। सङ्गति - सम + गम् + क्तिन्। पुंसाम् पू + डुमसुन् = पुंसाम् (ष0 ब0 व0)।
कोश - 'बुद्धिर्मनीषा धिषणा धीः प्रज्ञा शेमुषी मतिः' चित्त तु चेतो हृदयम्। दिशस्तु ककुभः कालाः स्यु पुमांस पञ्चजना पुरुषा - अमरकोशः ।
टिप्पणी - सत्संगति के महत्व पर प्रकाश डालते हुए महाकवि भर्तृहरि बतलाते हैं कि सत्संगति से बुद्धि निर्मल होती है, सत्यवचन का सचार होता है, पाप नष्ट होते हैं, सम्मान बढ़ता है, चित्त आह्लादित होता है और कीर्ति फैलती है - इस प्रकार सत्संगति से सब कुछ प्राप्त होता है। यहाँ काकु है। अन्यत्र भी कहा गया है- 'सता तु सङ्ग सकलं प्रसूते। दीपक तथा अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है। दीपक - प्रस्तुत योर्दीपक तु निगद्यते वसन्ततिलका छन्द है।
13. जयन्ति ते सुकृतिनः रससिद्ध : कवीश्वराः।
नास्ति तेषां तेशः काये जरामरणजं भयम्॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य नीतिशतकम् से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं।
प्रसंग - सम्प्रति कवि कवीश्वरों की महिमा का वर्णन कर रहे है।
हिन्दी अनुवाद - वे पुण्यात्मा रस सिद्ध कवीश्वर सर्वोत्कृष्ट हैं (विजयी होते है) जिनके यशरूपी शरीर में बुढापे और मृत्यु से उत्पन्न भय नहीं हैं।
संस्कृत-व्याख्या - ते = प्रसिद्धा, सुकृतिनः = पुण्यवन्त, रससिद्धा = शृगांरादि रस प्रतिपादनचतुरः, कवीश्वरा
= कविवरा, जयन्ति = सर्वोत्कर्षेण राजन्ते, येषां = कवीश्वराणाम् , यश कार्य = कीर्तिदेहे, जरामरणज = वार्धक्यमृत्यजम् भयं = भीति, नास्ति = न विद्यते। काव्यलिङ्गमलङ्कारः। अनुष्टप् वृत्तम्।
व्याकरण - (क) समास - रससिद्धा - सिद्ध रस यैः ते सिद्धरसा वा रससिद्धा। यहाँ सिद्ध शब्द का वैकल्पिक पूर्व प्रयोग है। कवीश्वरा कविषु ईश्वरा। (स0 त0)। यशः काये - यशः एव काय, तास्मिन (रूपक समास)।।
(ख) प्रकृति प्रत्यय - सुकृतिनः सु + कृ + क्त = सुकृतम् अस्ति येषा ते सुकृतिनः सुकृत + इनि। ईश्वराः - ईश - वरच। कायेचीयतेऽस्मिन् अस्थ्यादिकम् इति काय चि + घञ् (चस्य कः)। जरा - जू + अङ् + टाप्। मरणं - मृ + ल्युट्। जरामरणज - जरा + मरण + न् +ड।
कोश - सुकृती पुण्यवान् धन्य. 'भीतिर्भी: साध्वसं भयम्' अमरकोश।।
टिप्पणी - श्लेष के द्वारा इस श्लोक का वैद्य पक्ष में भी अर्थ घटित होता है 'वे पुण्यात्मा रसों की रचना में (सिद्धपारद गुटिका के प्रयोग में) दक्ष वैद्यराज विजयी होते हैं जिनके शरीर में जरा मृत्यु का भय नहीं होता है। इस श्लोक में श्लेष और काव्यलिङ्ग अलङ्कार तथा अनुष्टप् छन्द है।
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- प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- भूगोल एवं खगोल विषयों का अन्तः सम्बन्ध बताते हुए, इसके क्रमिक विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भारत का सभ्यता सम्बन्धी एक लम्बा इतिहास रहा है, इस सन्दर्भ में विज्ञान, गणित और चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण योगदानों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित आचार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये - 1. कौटिल्य (चाणक्य), 2. आर्यभट्ट, 3. वाराहमिहिर, 4. ब्रह्मगुप्त, 5. कालिदास, 6. धन्वन्तरि, 7. भाष्कराचार्य।
- प्रश्न- ज्योतिष तथा वास्तु शास्त्र का संक्षिप्त परिचय देते हुए दोनों शास्त्रों के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'योग' के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए, योग सम्बन्धी प्राचीन परिभाषाओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'आयुर्वेद' पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- कौटिलीय अर्थशास्त्र लोक-व्यवहार, राजनीति तथा दण्ड-विधान सम्बन्धी ज्ञान का व्यावहारिक चित्रण है, स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय संगीत के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- आस्तिक एवं नास्तिक भारतीय दर्शनों के नाम लिखिये।
- प्रश्न- भारतीय षड् दर्शनों के नाम व उनके प्रवर्तक आचार्यों के नाम लिखिये।
- प्रश्न- मानचित्र कला के विकास में योगदान देने वाले प्राचीन भूगोलवेत्ताओं के नाम बताइये।
- प्रश्न- भूगोल एवं खगोल शब्दों का प्रयोग सर्वप्रथम कहाँ मिलता है?
- प्रश्न- ऋतुओं का सर्वप्रथम ज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है?
- प्रश्न- पौराणिक युग में भारतीय विद्वान ने विश्व को सात द्वीपों में विभाजित किया था, जिनका वास्तविक स्थान क्या है?
- प्रश्न- न्यूटन से कई शताब्दी पूर्व किसने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त बताया?
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय गणितज्ञ कौन हैं, जिसने रेखागणित सम्बन्धी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया?
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- प्रश्न- श्री हर्ष की अलंकार छन्द योजना का निरूपण कर नैषधं विद्ध दोषधम् की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- महाभारत के रचयिता का संक्षिप्त परिचय देकर रचनाकाल बतलाइये।
- प्रश्न- महाकवि भारवि के व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- महाकवि हर्ष का परिचय लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि भारवि की भाषा शैली अलंकार एवं छन्दों योजना पर प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- "रामायण एक आर्दश काव्य है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- क्या महाभारत काव्य है?
- प्रश्न- महाभारत का मुख्य रस क्या है?
- प्रश्न- क्या महाभारत विश्वसाहित्य का विशालतम ग्रन्थ है?
- प्रश्न- 'वृहत्त्रयी' से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- भारवि का 'आतपत्र भारवि' नाम क्यों पड़ा?
- प्रश्न- 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' तथा 'आर्जवं कुटिलेषु न नीति:' भारवि के इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- 'महाकवि माघ चित्रकाव्य लिखने में सिद्धहस्त थे' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- 'महाकवि माघ भक्तकवि है' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- श्री हर्ष कौन थे?
- प्रश्न- श्री हर्ष की रचनाओं का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- 'श्री हर्ष कवि से बढ़कर दार्शनिक थे।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- श्री हर्ष की 'परिहास-प्रियता' का एक उदाहरण दीजिये।
- प्रश्न- नैषध महाकाव्य में प्रमुख रस क्या है?
- प्रश्न- "श्री हर्ष वैदर्भी रीति के कवि हैं" इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- 'काश्यां मरणान्मुक्तिः' श्री हर्ष ने इस कथन का समर्थन किया है। उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
- प्रश्न- 'नैषध विद्वदौषधम्' यह कथन किससे सम्बध्य है तथा इस कथन की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'त्रिमुनि' किसे कहते हैं? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- महाकवि भारवि का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी काव्य प्रतिभा का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारवि का विस्तार से वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग का संक्षिप्त कथानक प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- 'भारवेरर्थगौरवम्' पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- भारवि के महाकाव्य का नामोल्लेख करते हुए उसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की कथावस्तु एवं चरित्र-चित्रण पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की रस योजना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य-कला की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'वरं विरोधोऽपि समं महात्माभिः' सूक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।
- प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि कालिदास संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि हैं।
- प्रश्न- उपमा अलंकार के लिए कौन सा कवि प्रसिद्ध है।
- प्रश्न- अपनी पाठ्य-पुस्तक में विद्यमान 'कुमारसम्भव' का कथासार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- कालिदास की भाषा की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- कालिदास की रसयोजना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कालिदास की सौन्दर्य योजना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य' की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए -
- प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि के जीवन-परिचय पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'नीतिशतक' में लोकव्यवहार की शिक्षा किस प्रकार दी गयी है? लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की कृतियों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भर्तृहरि ने कितने शतकों की रचना की? उनका वर्ण्य विषय क्या है?
- प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की भाषा शैली पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- नीतिशतक का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- धीर पुरुष एवं छुद्र पुरुष के लिए भर्तृहरि ने किन उपमाओं का प्रयोग किया है। उनकी सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- विद्या प्रशंसा सम्बन्धी नीतिशतकम् श्लोकों का उदाहरण देते हुए विद्या के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- भर्तृहरि की काव्य रचना का प्रयोजन की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- भर्तृहरि के काव्य सौष्ठव पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' का विग्रह कर अर्थ बतलाइये।
- प्रश्न- 'संज्ञा प्रकरण किसे कहते हैं?
- प्रश्न- माहेश्वर सूत्र या अक्षरसाम्नाय लिखिये।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए - इति माहेश्वराणि सूत्राणि, इत्संज्ञा, ऋरषाणां मूर्धा, हलन्त्यम् ,अदर्शनं लोपः आदि
- प्रश्न- सन्धि किसे कहते हैं?
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- हल सन्धि किसे कहते हैं?
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।