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बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण

वाणिज्य शिक्षण

प्रो. रामपाल सिंह

प्रो. पृथ्वी सिंह

प्रकाशक : अग्रवाल पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2532
आईएसबीएन :9788189994303

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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक


7. वाद-विवाद पद्धति
(DISCUSSION METHOD)

आधुनिक शिक्षा विचारधाराओं के अनुसार सीखने को सरल. सुगम एवं बोधगम्यबनाने के लिए यह आवश्यक है कि छात्र कक्षा में सक्रिय रूप से भाग लें। उसे कक्षा मेंएक निष्क्रिय श्रोता-मात्र नहीं रहना है। सामाजिक अभिव्यक्ति पद्धति एवं अन्य क्रियात्मक पद्धतियों ने उपरोक्त सिद्धान्त को पर्याप्त मात्रा में अपनाया। कक्षा-शिक्षण के समय यदिबातचीत की जाये तो वर्तमान शिक्षाविद उसे भी एक शैक्षणिक क्रिया समझते हैं फलतःवे कक्षा में विषय से सम्बन्धित बातचीत तथा वाद-विवाद को भी अब शिक्षा का एकवेआवश्यक एवं प्रजातान्त्रिक तत्व मानने लगे हैं। कक्षा में विषय-वस्तु से सम्बन्धितयोजित वाद-विवाद समय को नष्ट करना नहीं है क्योंकि वाद-विवाद करने के लिएविषय का ठोस ज्ञान होना आवश्यक है। वाद-विवाद के लिए तैयारी करनी पड़ती है, विषय-वस्तु का चुनाव एवं संगठन करना पड़ता है, विचार-विमर्श करना पड़ता है, कुछबातें सीखनी पड़ती हैं, अपने विचारों को स्पष्ट करना पड़ता है और अन्त में एकसामूहिक निष्कर्ष पर आना पड़ता है। इस प्रकार योजित वादविवाद के निष्कर्ष बड़ेउपयोगी होते हैं अतः कक्षा को विभिन्न प्रकार के वाद-विवादों पर प्रयोग करने चाहिए।

वाद-विवाद पद्धति की विवेचना करने से पूर्व वाद-विवाद का अर्थ एवं स्वरूप प्राप्तकर लेना आवश्यक है। साधारण बातचीत में पाये जाने वाले विचारों से कहीं अधिकतार्किक एवं विस्तृत रूप में पाये जाने वाले विचारों के आदान-प्रदान को वाद-विवादकहते हैं। साधारण रूप में वाद-विवाद में महत्वपूर्ण विचार एवं समस्यायें सम्मिलित कीजाती हैं। वाद-विवाद अनावश्यक तथा निरर्थक तथ्यों का संग्रह करना नहीं है।वाद-विवाद शिष्ट तार्किक एवं ज्ञानयुक्त विचार-विमर्श है प्रश्नोत्तर नहीं। वैज्ञानिकवाद-विवाद वह वाद-विवाद है जिसमें सभी समान रूप में भाग लें, परन्तु यह आवश्यकनहीं कि सभी बोलें ही। इसी प्रकार वाद-विवाद व्यक्तियों का अहम् भाव प्रदर्शित करनेहेतु बातचीत करना भी नहीं है और न अपने दृष्टिकोण को दूसरों पर लादना ही है, परन्तु वास्तविक रूप से वाद-विवाद न तो भाषण ही है और न सामाजिक अभिव्यक्ति ।यह तो इन सभी से पृथक है।

वाद-विवाद का स्वरूप ज्ञात कर लेने के पश्चात् अब हम वाद-विवाद पद्धति केसम्बन्ध में अध्ययन करेंगे। इस पद्धति के सम्बन्ध में हमारा अध्ययन तीनबिन्दुओं-तैयारी, वाद-विवाद एवं मूल्यांकन तक ही सीमित रहेगा। सबसे पहले हमअध्ययन करेंगे कि वाद-विवाद कराने से पूर्व किस प्रकार की तैयारी करनी चाहिए फिर देखेंगे कि वाद-विवाद किस प्रकार होना चाहिए और अन्त में पढ़ेंगे कि वाद-विवाद का मूल्यांकन किस प्रकार किया जाये? वाद-विवाद हेतु तैयारी बिना किसी योजना तथा पूर्व तैयारी के किसी कार्य को सम्पादित करने हेतुप्रयास करना असफलता का द्योतक है। किसी कार्य में सफलता प्राप्त करने हेतु कार्यको सम्पादित करने से पूर्व योजना बना लेना आवश्यक है। बीच में विघ्न न पड़े. इसकेलिए पूर्व तैयारी आवश्यक है। इसी प्रकार वाद-विवाद प्रारम्भ करने से पूर्व योजना बनालेना तथा वाद-विवाद हेतु आवश्यक तैयारी कर लेना सफलता का द्योतक है। अतःअध्यापक को इस सम्बन्ध में पहले ही सभी आवश्यक सामग्री की व्यवस्था कर लेनाचाहिए तथा पूर्व-योजना बना लेना चाहिए।

वाद-विवाद प्रारम्भ करने से पूर्व अध्यापक को कक्षा का वातावरण ऐसा बना देनाआवश्यक है जिसमें वे स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सके।वातावरण जितना अधिक सुखद होगा, उतने ही अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे। छात्रों के केबैठने की भी विशेष व्यवस्था की जानी चाहिए। सर्वोत्तम व्यवस्था वह है जिसमें सभी छात्रएक-दूसरे को देख सकें। इसके लिए अर्द्धचन्द्राकार में छात्रों की व्यवस्था की जा सकतीहै। अध्यापक को ऐसे स्थान पर बैठना चाहिए, जहाँ से वह सभी छात्रों पर निगाह रखसके।वाद-विवाद प्रारम्भ करने के लिए यह भी आवश्यक है कि विषय-वस्तु छात्रों को'स्पष्ट हो। अतः अध्यापक को समस्या-प्रस्तुत करते समय ही एक प्रस्तावनात्मक भाषणके द्वारा छात्रों को समस्या का रूप बदल देना चाहिए।

समस्या का निर्माण किसी क्रिया से सम्बन्धित होना चाहिए। यदि समस्या किसीक्रिया से सम्बन्धित है तो छात्र उसमें अधिक रुचि लेंगे।
वाद-विवाद हेतु पहले से तैयारी करना, जिस प्रकार अध्यापक के लिए आवश्यकहै, ठीक उसी प्रकार छात्रों के लिए तैयारी करना भी आवश्यक है। किसी दी हुई समस्याका जब तक छात्र भली प्रकार अध्ययन करके नहीं आते वे वाद-विवाद में भली प्रकारभान न ले सकेंगे। अतः छात्रों को पहले से ही समस्या दे देनी चाहिए और छात्रों को इस समस्या का अध्ययन करके वाद-विवाद हेतु तैयारी कर लेनी चाहिए। वाद-विवादहेतु छात्र किस प्रकार से अध्ययन करें? इस सम्बन्ध में वेस्ले तथा रास्की महोदय ने निम्नांकितं सुझाव दिये हैं-

(1) विषय-वस्तु तथा समस्या का हर समय ध्यान रखो।
(2) प्रत्येक सर्वोत्तम साधन से सूचनायें एकत्रित करो।
(3) मासिक पत्रिकायें तथा पुस्तिकायें आदि पढ़ो।
(4) समाचार पत्रों का अध्ययन करो।
(5) पाठ के महत्वपूर्ण भागों को ध्यानपूर्वक पढ़ो।
(6) सोद्देश्य रूप से पढ़ो। निरर्थक तथ्यों को छोड़ दो
(7) आलोचनात्मक रूप से पढ़ो।
(8) वस्तुनिष्ठ रूप से पढ़ो।
(9) तथ्यों तथा विचारों में अन्तर करके पढ़ो।
(10) लेखक के विचारों को समझने के लिए धैर्यपूर्वक पढ़ो।
(11) पढ़ने से अपनी सूचनाओं के भण्डार में वृद्धि करो।
(12) पढ़कर निष्कर्ष निकालिये एवं सामान्यीकरण कीजिये।
(13) अन्त में पाठ का सारांश निकालिये।
(14) मुख्य बिन्दुओं को तार्किक रूप से समझाइये।
(15) सावधानीपूर्वक तैयारी कीजिये।

वाद-विवाद का संचालन

वाद-विवाद का प्रारम्भ छात्र तथा अध्यापक दोनों में कोई भी कर सकता है।वाद-विवाद का प्रारम्भ छात्र या अध्यापक कोई कहानी कहकर, कोई समस्या खड़ीकरके, कोई चित्र दिखाकर, कोई वस्तु दिखाकर या किसी घटना का वर्णन करके करसकते हैं। किस प्रकार वाद-विवाद प्रारम्भ किया जाये. यह वाद-विवाद के उद्देश्यों परनिर्भर करता है। वाद-विवाद प्रारम्भ हो जाने पर उसे अपने उद्देश्यों तक पहुँचाने कीआवश्यकता पड़ती है। इसके लिए योग्य संचालन जरूरी है। संचालन इस प्रकार कियाजाये कि वाद-विवाद में भाग लेने वाले सभी छात्र अपने विचारों को सरलता, स्वतन्त्रता,तथा इच्छानुसार व्यक्त कर सकें। संचालक को वाद-विवाद के द्वारा पूर्व निर्धारित उद्देश्योंकी तरफ सदैव ध्यान रखना चाहिए। वाद-विवाद को उद्देश्यों की ओर ले जाने के लिएबीच-बीच में प्रश्नों का सहारा लिया जा सकता है। किन्हीं विशेष तथ्यों की व्याख्या भीकी जा सकती है, कुछ बिन्दुओं का विश्लेषण भी किया जा सकता है और अन्त मेंसम्पूर्ण वाद-विवाद का सारांश भी निकाला जा सकता है। इस प्रकार वाद-विवाद केसंचालन में निम्नांकित चार बिन्दु सम्मिलित होते हैं-

(1) प्रारम्भ
(2) विश्लेषण
(3) व्याख्या
(4) सारांश

वाद-विवाद के संचालन की व्यवस्था का जहाँ तक प्रश्न है, वाद-विवाद हेतु कक्षाको या तो विभिन्न टुकड़ों में विभाजित किया जा सकता है. या सम्पूर्ण कक्षा एक साथ हीवाद-विवाद कर सकती है। यदि कक्षा टुकड़ों में विभाजित की जाती है, तो प्रत्येकटुकड़े में चार-पाँच से अधिक छात्र नहीं रखने चाहिए। प्रत्येक टुकड़ा दी हुई समस्या के केसम्बन्ध में परस्पर वाद-विवाद कर एक निष्कर्ष पर पहुँचेगा और अन्त में अपनी रिपोर्टसमस्त कक्षा के सम्मुख प्रस्तुत करेगा। इसी प्रकार सभी दुकड़े अपनी-अपनी रिपोर्टप्रस्तुत करेंगे. फिर सम्पूर्ण कक्षा में इन समस्त रिपोटों पर वाद-विवाद किया जायेगा।

मूल्यांकन
वाद-विवाद का मुख्य उद्देश्य छात्रों में वांछनीय परिवर्तन लाना है। यदिवाद-विवाद किसी भी प्रकार के परिवर्तन नहीं लाता है तो निरर्थक माना जायेगा औरयदि परिवर्तन लाता है तो प्रश्न उठता है कि छात्रों में कितना परिवर्तन हुआ। उसवांछित परिवर्तन का मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है। वांछित परिवर्तनों कामूल्यांकन छात्र स्वयं तथा अध्यापक कोई भी कर सकता है। मूल्यांकन हेतु हमविभिन्न प्रकार की प्रश्नावलियों या साक्षात्कार का प्रयोग कर सकते हैं और ज्ञात करसकते हैं कि विभिन्न क्षेत्रों में क्या परिवर्तन हुए? उदाहरणस्वरूप, विषय-वस्तु के ज्ञानमें कितनी वृद्धि हुई ? कितना बौद्धिक विकास हुआ? कितनी बौद्धिक क्षमतायें बढ़ीं?रुचियों में क्या परिवर्तन हुए ? अभियोग्यता तथा मूल्यों में क्या परिवर्तन हुए ?आदि-आदि।

वांछित परिवर्तनों के अलावा हम वाद-विवाद से स्वयं का मूल्यांकन कर सकतेहै। वाद-विवाद कितना सफल रहा यह ज्ञात करना भी भविष्य के लिए अच्छा रहता है।इसके लिए हमें वाद-विवाद की आलोचना नीचे लिखे आधारों पर करनी पड़ेगी-

(1) वाद-विवाद निर्धारित-उद्देश्यों को प्राप्त करने में कहाँ तक सफल रहा?
(2) वाद-विवाद में कहाँ कहाँ कठिनाइयाँ एवं कमियाँ आर्थी तथा इनके क्याकारण थे?
(3) क्या प्रत्येक छात्र ने भाग लिया?
(4) क्या कुछ एक छात्र ही वाद-विवाद पर छाये रहे?

पद्धति के गुण (Merits of the Method)
वाद-विवाद पद्धति में निम्नांकित गुण पाये जाते हैं-
(1) पद्धति व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर निर्भर है।
(2) पद्धति स्वतन्त्र अध्ययन पर जोर देती है।
(3) पद्धति छात्रों में तर्क शक्ति का विकास करती है।
(4) पद्धति क्रिया के सिद्धान्त पर आधारित है।
(5) पद्धति स्वाध्याय का विकास करती है।
(6) पद्धति छात्रों को सोद्देश्यपूर्ण रूप से अध्ययन करना सिखलाती है।
(7) पद्धति छात्रों को विषय-वस्तु का चयन एवं संगठन करना सिखलाती है।
(8) पद्धति छात्रों में सहयोगितापूर्ण प्रतियोगिता का विकास करती है।

पद्धति के दोष (Demerits of the Method)

पद्धति में उपरोक्त गुणों के साथ निम्नांकित दोष भी पाये जाते हैं-
(1) निरर्थक वाद-विवाद में समय नष्ट किया जा सकता है।
(2) सम्पूर्ण विषय-वस्तु का अध्यापन सम्भव नहीं है।
(3) सभी अध्यापक कुशलतापूर्वक वाद-विवाद का संचालन नहीं कर सकते हैं।
(4) यह पद्धति अधिक समय चाहती है।
(5) वाद-विवाद में कुछ ही छात्र प्रमुख रूप से भाग लेकर अन्य छात्रों को बोलनेका अवसर प्रदान नहीं करने दे सकते हैं।
(6) छात्र इससे विशेष लाभ नहीं उठा सकते हैं।

कुछ सुझाव (Some Suggestions)

(1) वाद-विवाद कराने से पूर्व समस्या का निर्माण ठीक प्रकार किया जाये
(2) वाद-विवाद का प्रारम्भ तथा पूर्व-तैयारी विधिपूर्वक की जाये।
(3) वाद-विवाद का संचालन नियमानुसार किया जाये।
(4) मूल्यांकन बिना पक्षपात के किया जाये।
(5) निरर्थक एवं असम्बन्धित वाद-विवाद को चतुरता से रोका जाये।
(6) सभी छात्रों को बोलने का समान अवसर दिया जाये।

8. इकाई-पद्धति
(UNIT METHOD)

विभिन्न शिक्षण-पद्धतियों में 'इकाई-पद्धति' आधुनिकतम पद्धति है। इकाई पद्धतिको समझने से पूर्व इकाई को समझना आवश्यक है। हन्ना, हैजमैन तथा पौटर ने इकाईके सम्बन्ध में लिखा है, 'इकाई सोद्देश्य सीखने से सम्बन्धित अनुभव है, जिसकाकेन्द्रबिन्दु कुछ सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण ज्ञान है, जो सीखने वाले के व्यवहार कोसुधारता है तथा उसे जीवन में परिस्थितियों के साथ अधिक प्रभावक रूप से समायोजनकरने योग्य बनाता है। वेस्ले तथा रास्की ने इकाई की परिभाषा देते लिखा है,इकाई सीखने वाले के लिए महत्वपूर्ण अनुशीलों को प्रभावित करने हेतु बनाई गयीसूचनाओं तथा अनुभवों की एक संगठित व्यवस्था है। ये महत्वपूर्ण अनुशील उसकेव्यवहार में प्रदर्शित होंगे। जेरोलीमेक ने इकाई की परिभाषा देते हुए लिखा है, इकाईशैक्षणिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु महत्वपूर्ण विषय-वस्तु को संगठित करने का एक ऐसासाधन है. जो महत्वपूर्ण विषय-वस्तु का प्रयोग करता है..जो छात्रों को सीखने सम्बन्धीक्रियाओं में बौद्धिक एवं शारीरिक रूप से संलग्न रखता है एवं छात्रों के व्यवहार को उससीमा तक सुधारता है, जहाँ तक वे नयी समस्याओं तथा परिस्थितियों के साथ मुकाबलाकरने योग्य बन सकें।

Unit is a means of organizing meterials for instructional purposeswhich utilizes significant subject-matter-contact, involves pupils in learn-ing, activities through active participation intellectually and physically and modifies the pupils behaviour to the extent that he is able to cope with new problems and situations more competently.-Jarolimek.

इस प्रकार इकाई एक ऐसा शैक्षणिक साधन है जो छात्रों को सीखने सम्बन्धीक्रियाओं में शारीरिक व बौद्धिक रूप से व्यस्त रखता है तथा उन्हें नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करने योग्य बनाता है।
इकाई का अर्थ स्पष्ट हो जाने पर इकाई-पद्धति' का अर्थ भी सरलता से स्पष्टहो जाता है। इकाई-पद्धति अध्ययन की वह पद्धति है जो छात्रों के सम्मुख विषय-वस्तुको इस प्रकार प्रस्तुत करती है कि वे बौद्धिक एवं शारीरिक रूप से व्यस्त रहें तथा इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करें कि प्राप्त ज्ञान के माध्यम से वे नयी परिस्थितियों के साथसमायोजन कर सकें। साररूप में, इकाई-पद्धति विषय-वस्तु, शिक्षण-प्रविधियों तथाशिक्षण-युक्तियों के संगठन की वह पद्धति है जो पढ़ाने तथा सीखने हेतु प्रभावोत्पादक बनाती है।

Reserve unit may properly be thought of as collections of suggestedteachings, materials and activities organized around large topics...........
-Jarolimek, Social Studies in Elementary Education, p. 61.

इकाई के प्रकार (Types of the Unit)

किसी भी पाठ के अनेक पहलू (Aspects) हो सकते हैं, जैसे ज्ञान के साधन,अध्यापन, सहायक-सामग्री, उद्देश्य, मूल्य, सौन्दर्य प्रक्रिया अनुभव आदि-आदि। किसी में किसी पहलू पर बल दिया जाता है तो किसी पाठ में अन्य किसी पहलू पर। पाठ मेंजिस पहलू पर बल दिया जाता है, वह पाठ वैसा ही पाठ कहलाता है, जैसे यदि किसीपाठ में ज्ञानार्जन पर बल दिया जाता है तो वह पाठ ज्ञानात्मक पाठ कहलायेगा। यदिपाठ में सौन्दर्य का बाहुल्य है तो पाठ सौन्दर्यात्मक कहलायेगा। इसी प्रकार यदि पाठ मेंअनुभवों को अधिक महत्व दिया गया है तो पाठ अनुभवात्मक पाठ कहलायेगा। जिसप्रकार पाठ में अनेक पहलू होते हैं. अध्यापन में भी इसी प्रकार अनेक पहलू होते हैं। यदि अध्यापन छात्रों को ज्ञान प्रदान करने के दृष्टिकोण से सम्पादित किया जा रहा हैतो अध्यापन ज्ञानात्मक कहलायेगा। यदि अध्यापन में अनुभवों पर बल दिया गया है तो अध्यापन अनुभवात्मक कहलायेगा। इसी प्रकार इकाई भी अनेक प्रकार की हो सकतीहै। कोई इकाई कैसी है, यह उस पहलू पर निर्भर है, जिसको उस इकाई में महत्वप्रदान किया गया है। इस प्रकार इकाई कई प्रकार की हो सकती है, जैसे ज्ञानात्मक,साधनात्मक, अनुभवात्मकं, प्रक्रियात्मक, आदि-आदि, किन्तु वर्तमान में लेखकगण केवल दो इकाइयों पर अधिक बल देते हैं-

(1) साधनात्मक (Resource Unit) तथा
(2) अध्यापनात्मक (Teaching Unit)|

इसलिए यहाँ पर भी हम इन्हीं दो प्रकार की इकाइयों का संक्षिप्त अध्ययन करेंगे-

(1) साधनात्मक इकाई (Resource Unit)

साधनात्मक तथा अध्यापनात्मक इकाइयों में उद्देश्य, क्षेत्र तथा संगठन केदृष्टिकोण से पर्याप्त अन्तर होते हुए भी दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। साधनात्मक इकाइयाँ किसी बड़े पाठ से सम्बन्धित शैक्षणिक सामग्री तथा क्रियाओं का संग्रह है। साधनात्मक इकाइयों का निर्माण शिक्षक-समूह तथा विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। इसके निर्माण में शिक्षक-समूह पाठ्यक्रम-निर्माताओं, राज्य-शिक्षा विभाग, शिक्षा-संस्थाओं तथाअन्य सामाजिक संस्थाओं की सहायता भी ले सकता है। इस प्रकार की इकाई का निर्माण छात्रों के किसी विशेष समूह के लिए नहीं किया जाता है। इनमें शिक्षण-व्यवस्थाकी सामान्य रूपरेखा दी होती है। इस सामान्य रूपरेखा में प्रायः निम्नांकित बातों का उल्लेख रहता है-

1. प्रस्तावना,
2. इकाई-पाठ से सम्बन्धित विषय-सामग्री तथा समस्यायें व प्रश्न,
3. उद्देश्य एवं मूल्य,
4. सम्भावित क्रियायें,
5. मूल्यांकन,
6. पुस्तक-सूची तथा सहायक-सामग्री।

1.नीचे इन्हीं बिन्दुओं पर आधारित एक साधनात्मक इकाई की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुतहै शीर्षक
(1) प्रस्तावना-प्रस्तावना में इकाई किस कक्षा के हेतु है, कितने समय के लिएहै, समय-चक्र क्या है. शीर्षक का शैक्षिक महत्व क्या है, किन बिन्दुओं को महत्त्व देना है.आदि बातों का उल्लेख रहेगा।
(2) विषय-सामग्री-इसमें इकाई से सम्बन्धित विषय-वस्तु का विस्तृत उल्लेखहोगा तथा सम्बन्धित समस्याओं एवं प्रश्नों का उल्लेख भी यहीं किया जायेगा।
(3) उद्देश्य एवं मूल्य-इकाई किन उद्देश्यों व मूल्यों को लेकर आगे बढ़ी है? संक्षेप में, यहाँ अध्यापन के उद्देश्य एवं मूल्यों का वर्णन होगा। उद्देश्यों में हम ज्ञानात्मक,कौशलात्मक, प्रयोगात्मक तथा रुच्यात्मक उद्देश्यों का पृथक-पृथक वर्णन करेंगे।
(4) सम्भावित क्रियायें-इकाई का यह प्रमुख भाग होता है और यह अध्यापनात्मक इकाई के निर्माण में अत्यन्त सहायक होता है। इसमें प्रायः नीचे लिखी क्रियाओं का उल्लेख रहता है-

(अ) प्रारम्भिक क्रियायें (Initiatory Activities) प्रारम्भिक क्रियायें पाठ को प्रारम्भकरने, पाठ के प्रति छात्रों में रुचि जाग्रत करने तथा अध्यापन की योजना बनाने मेंसहायक होती है। इन क्रियाओं में हम श्रवण, वाचन अध्ययन, वाद-विवाद, अवलोकन,फिल्म देखना आदि भी सम्मिलित कर सकते हैं।

(आ) विकासात्मक क्रियायें (Developmental Activities)-पाठ प्रारम्भ हो जानेके पश्चात् जो क्रियायें पाठ को आगे बढ़ाती हैं. या जिन क्रियाओं के माध्यम से पाठआगे बढ़ता है, विकासात्मक क्रियायें कहलाती हैं। जेरोलीमेक (Jarolimek) ने इन्हें नौ भागों में विभक्त किया है-

(i)अनुसन्धान प्रकार क्रियायें (Research-type Activities)
(ii) प्रस्तुतीकरण प्रकार क्रियायें (Presentation type Activities)
(iii) सृजनात्मक क्रियायें (Creative Activities)
(iv) आवृत्ति क्रियायें (Drill Activities)
(v)सौन्दर्यात्मक क्रियायें (Appreciation Activities)
(vi) अवलोकनात्मक क्रियायें (Observation Activities)
(vi) समूह सहकारिता क्रियायें (Group Cooperation Activities)
(viii) प्रयोगात्मक क्रियायें (Experimental Activities)
(ix) मूल्यांकन क्रियायें (Evaluating Activities)|

(इ) समापन क्रियायें (Culminating Activities) वे क्रियायें अध्यापकों को उनसुझावों को बतलाती हैं, जिनके माध्यम से इकाई सफलतापूर्वक समाप्त की जा सकतीहै। इन क्रियाओं में निष्कर्ष निकालना (Review), सीखने का हस्तान्तरण करना आदि सम्मिलित हैं।

(5) मूल्यांकन-इसमें मूल्यांकन की विधि का उल्लेख रहता है। सामान्य तथा मूल्यांकन निष्पत्ति परीक्षा छात्रों द्वारा आत्म-विवेचन, लिखित परीक्षा तथा अन्य एकत्रितआँकड़ों के माध्यम से किया जाता है।

(6) सहायक-सामग्री-इसमें इकाई की विषय-वस्तु से सम्बन्धित सहाराक सामग्रीका उल्लेख रहता है। पुस्तकों, सहायक-पुस्तकों के नाम तथा प्रयोग की जाने वालीअन्य दृश्य-श्रव्य सामग्री का उल्लेख इसमें रहता है।(

2) अध्यापनात्मक इकाई (Teaching Unit)

ऊपर कहा गया है कि साधनात्मकं इकाई छात्रों के किसी विशिष्ट समूह के लिएनहीं बनायी जाती है, किन्तु अध्यापनात्मक इकाई का निर्माण अध्यापक द्वारा छात्रों केकिसी विशिष्ट वर्ग हेतु किया जाता है। इसके निर्माण में अध्यापक साधनात्मक इकाई सेपूरी-पूरी सहायता लेता है। अध्यापनात्मक इकाई साधनात्मक इकाई के आधारों से पृथकनहीं जा सकती है। साधनात्मक इकाई पर्याप्त मात्रा में अध्यापनात्मक इकाई को प्रभावितकरती है। जेरीलीमेक के अनुसार अध्यापक अपनी अध्यापनात्मक इकाई का निर्माणकरते समय अनेक विचार तथा सुझाव साधनात्मक इकाई से लेता है। जहाँ तकअध्यापनात्मक इकाई की रूपरेखा का प्रश्न है, अध्यापनात्मक एवं साधनात्मक इकाई कीरूपरेखाओं में कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं होता है। फलतः अध्यापनात्मक इकाई कीपृथक कोई रूपरेखा नहीं दी जा रही है। अध्यापक उपलब्ध साधनों तथा परिस्थितियों केअनुसार साधनात्मक इकाई की रूपरेखा में परिवर्तन करके अध्यापनात्मक इकाई कीरूपरेखा तैयार कर लेता है। इकाई की अध्ययन-निर्देशिका (Study Guide to the Unit)
इकाई-पद्धति के अनुसार पढ़ाने से पूर्व छात्रों को अध्ययन-निर्देशिकायें वितरित कर दी जाती हैं। इन निर्देशिकाओं में इकाई के मूल तत्वों, क्रियाओं तथा विषय-वस्तु का के वर्णन रहता है। दूसरे शब्दों में, निर्देशिका को हम इकाई का संक्षिप्त रूप कह सकतेहैं। छात्र इस निर्देशिका की सहायता से इकाई के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करते हैं, तथाइकाई को पूरा करने की तैयारी करते हैं। उन्हें जो क्रियायें करनी हैं, उसके लिए औरउन्हें जो दायित्व वहन करने हैं, उसके लिए अपने को तैयार करते हैं।

इकाई और पाठ-योजना (Unit and Lesson Planning)

एक इकाई कई दिनों तक चलती है, कोई-कोई इकाई तो महीनों तक चलतीरहती है। इकाई बना लेने के बाद अध्यापक के सम्मुख समस्या उठती है कि वह दैनिककार्य किस प्रकार सम्पादित करे? इसके लिए उसे दैनिक पाठ-योजना की आवश्यकतापड़ती है। कक्षा में जाने से पूर्व उसे सोचना पड़ता है कि आज के कार्य का किस प्रकारसंगठन करे? दैनिक कार्य का संगठन अध्यापक निम्नांकित प्रारूप के अनुसार कर सकता है

दैनिक पाठ-योजना
कक्षा.....     दिनांक.
आज के प्रमुख उद्देश्य
1.......
2.......
3.......

3 चालू क्रिया या समस्यायें
1..........
2..........
3...........

सम्भावित
समय            क्रियायें    अध्यापक क्रियायें    छात्र-क्रियायें
दिनचर्या
प्रारम्भिक क्रियायें
विकासात्मक क्रियायें
समापन क्रियायें
विषय-सामग्री के मुख्य बिन्दु
1...........
2...........
3...........
मूल्यांकन
1...........
2...........
3...........

इकाई-संगठन (Unit Organization)

इकाई के संगठन का सर्वप्रथम रूप हरबर्ट (Herbert) ने दिया। हरबर्ट ने इकाईके संगठन हेतु पाँच पदों (Steps) को आवश्यक बतलाया। हरबर्ट के अनुसारइकाई-संगठन की तैयारी, प्रस्तुतीकरण, तुलना, सामान्यीकरण तथा प्रयोग, पाँच पदों काहोना आवश्यक है। कालान्तर में हरबर्ट के इन पाँच पदों का पर्याप्त प्रचार एवं प्रसारहुआ और तीव्र आलोचनायें भी हुई। इन आलोचनाओं के फलस्वरूप इकाई सगठन केनये-नये रूप हमारे सम्मुख आये। इन रूपों में चार्ल्स ए० मैकमरी (Charles A.Memurry), जॉन ड्यूवी (John Dewey) तथा डॉ० मौरीसन (Dr. Morison) के संगठनप्रमुख है। संगठन के इन रूपों में वास्तविक रूप से डॉ० मौरीसन के संगठन का रूपही मौलिक है। मैकमरी तथा ड्यूवी के रूप तो हरबर्ट के रूप का ही परिवर्तित रूप है। सन् 1926 में डॉ० मौरीसन ने इकाई-संगठन के लिए निम्नांकित पाँच पदों का उल्लेख किया है

1) पूर्व-ज्ञान (Exploration)- इस पद में अध्यापक छात्रों के पूर्व ज्ञान का पतालगाता है।
(2) प्रस्तुतीकरण (Presentation) यहाँ अध्यापक नवीन ज्ञान को छात्रों केसम्मुख प्रस्तुत करता है।
(3) आत्मीकरण (Assimilation) इससे छात्र नये ज्ञान को आत्मसात् करने हेतु अनेक क्रियायें करते हैं, यथा पढ़ना, लिखना, बातचीत करना, वाद-विवाद करना हो। पूछना, तर्क करना, परामर्श करना आदि। इस पद में कक्षा की व्यवस्था अव्यवस्थित हो जाती है।
(4) संगठन (Organization)-इस पद में अव्यवस्थित रूप से व्यवस्थित कक्षा कोपुनः एकत्रित कर, कक्षा के प्रत्येक छात्र से उसके द्वारा अर्जित ज्ञान को तार्किक तथाबोधगम्य रूप में लिखने को कहा जाता है।
(5) अभिव्यक्ति (Recitation) अन्त में अध्यापक छात्रों के अर्जित ज्ञान को विभिन्नप्रकार से दुहराता है।

अच्छी इकाई की विशेषतायें (Characteristics of a Good Unit)

अच्छी इकाई में निम्नांकित विशेषतायें होती हैं

1. इकाई का आकार उपयुक्त
2. इकाई प्रयोगात्मक हो।
3. इकाई छात्रों की आवश्यकता, रुचि तथा मानसिक स्तर के अनुरूप हो।
4. इकाई छात्रों के पूर्वानुभवों पर आधारित हो।
5. इकाई में ज्ञान, कौशल, प्रयोग, रुचि, क्रिया तथा योजनाओं हेतु पर्याप्त सामग्री हो।
6. इकाई छात्रों की अन्तर्दृष्टि का विकास करे।

पद्धति के गुण (Merits of Method)
(इकाई-पद्धति में निम्नांकित गुण हैं।

1. इकाई तर्कसंगत चिन्तन का विकास करती है।
2. इकाई. कौशल, योग्यताओं तथा अभिरुचियों का विकास करती है।

The extension of knowledge and the development of skills, abilitiesand attitudes are all possible outcomes of good units.-Jarolimek, Ibid. p. 673.

3. इकाई अध्यापन हेतु प्राकृतिक परिस्थितियाँ प्रस्तुत करती है।
The unit also has the advantage of providing a natural situtution inwhich to teach the skills of democratic group action, Ibid.4.

4. इकाई छात्रों का समाजीकरण करती है।
Development and growth of socialization skills is recognized asbasic to unit work, Ibid.5.

5. इकाई में लोच होती है, फलतः व्यक्तिगत विभिन्नताओं का पूरा ध्यान रखा जासकता है।
Flexibility in adapting instruction to individual differences ofchildren.-Ibid.6.

6. इकाई में छात्र अत्यन्त क्रियाशील रहते हैं।

7.  इकाई सम्पूर्ण पाठ की योजना का ज्ञान कराती है।

अभ्यास-प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न

1. वाणिज्य-शिक्षण में प्रयोगशाला पद्धति के प्रयोग पर अपने विचार विस्तार से लिखिये।
2. योजना (Project) किसे कहते है? योजना-पद्धति से वाणिज्य शिक्षण किस प्रकार करेंगे? योजना-पद्धति के गुण व दोषों का भी उल्लेख कीजिये।
3. वाणिज्य-शिक्षण की समस्या समाधान-पद्धति का विस्तार से वर्णन कीजिये।
4. शिक्षण की सामाजीकृत अभिव्यक्ति पद्धति क्या है? वाणिज्य-शिक्षण में इसकी क्या उपयोगिता है?
5. वाणिज्य-शिक्षण के लिये वाद-विवाद पद्धति के प्रयोग पर अपने विचार लिखें तथा इस पद्धति के गुण-दोषों की चर्चा करें।
6. शिक्षण की इकाई-पद्धति का वाणिज्य शिक्षण हेतु आप किस प्रकार प्रयोग करेंगे? विस्तार से लिखिये।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

1. वाणिज्य प्रयोगशाला की संरचना पर अपने विचार लिखिये।
2. योजना पद्धति व समस्या समाधान पद्धति में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिये।
3. वाणिज्य शिक्षण हेतु संश्लेषण पद्धति की क्या उपयोगिता है?
4. इकाई का अर्थ तथा प्रकारों का परिचय दीजिये।
5. वाणिज्य शिक्षण में निरीक्षित अध्ययन के महत्व पर प्रकाश डालिये।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. सन् 1918 तक किस पद्धति का रूप स्पष्ट हुआ?
(अ) समस्या पद्धति
(ब) इकाई पद्धति
(स) योजना पद्धति
(द) वाद-विवाद पद्धति

2. वाणिज्य की योजनाओं में कितने चरण उठाने पड़ते हैं ?
(ब) चार(स) छ{(द) सोलह

3. विवादग्रस्त पद्धति निम्न में से कौन सी है-(
अ) समस्या समाधान पद्धति (ब) प्रयोगशाला पद्धति(स) योजना पद्धति (द) विश्लेषणात्मक पद्धति

4.'पद्धति में अध्यापक द्वारा कार्य-निर्धारण करना अत्यधिक महत्वरखता है।

उत्तर-1. (स) योजना पद्धति. 2. (स) छ, 3. (अ) समस्या समाधान पद्धति, 4. निरीक्षित अध्ययन।

(अ) दो

6

पुस्तपालन शिक्षण

(TEACHING OF BOOK-KEEPING)


वैसे तो वाणिज्य में बहुत से विषय आते हैं किन्तु शिक्षण की दृष्टि से हम उन्हेंतीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-पुस्तपालन (Book-keeping). व्यापार पद्धति(Commercial Practice) तथा आशुलिपि एवं टंकण (Short-hand and Typing), शिक्षणकी दृष्टि से इन तीनों ही विषयों का स्वभाव एक-दूसरे से बिलकुल पृथक है, अतः तीनों ही विषयों के लिए शिक्षण की पृथक-पृथक् विधियाँ अपनानी पड़ती हैं। व्यापारिक भूगोल,बैंकिंग, मुद्रा तथा अधिकोषण, व्यापारिक सन्नियम आदि ऐसे विषय हैं शिक्षण की दृष्टि सेजिनका स्वभाव ठीक व्यापार-पद्धति ज्ञान के समान ही है। अतः इन विषयों के शिक्षणके लिए अलग से चर्चा करना सार्थक नहीं है। क्योंकि सभी विषयों की शिक्षण विधियाँ करीब-करीब एक जैसी हैं। अतः प्रस्तुत पुस्तक के इस अध्याय में पुस्तपालन शिक्षण के आधारभूत तत्वों की चर्चा की जायेगी तथा आगामी अध्याय में व्यापार पद्धति ज्ञान शिक्षणके सम्बन्ध में आवश्यक तथ्य प्रस्तुत किये जायेंगे।

पुस्तपालन शिक्षण के उद्देश्य(OBJECTIVE OF TEACHING BOOK-KEEPING)शिक्षण-उद्देश्यों के अर्थ, आवश्यकता. इनके निर्धारक तत्व तथा उद्देश्यों के प्रकारोंका संक्षिप्त परिचय हम प्रस्तुत पुस्तक के अध्याय दो में अध्ययन कर चुके हैं.अनावश्यक रूप से पुस्तक के कलेवर को बढ़ने से रोकने के लिए उद्देश्यों सेसम्बन्धित इन तथ्यों की यहाँ पुनरावृत्ति की जाती है और हम सीधे ही पुस्तपालन (बहीखाता) के शिक्षण उद्देश्यों का अध्ययन करते है।

(1) पुस्तपालन शिक्षण के सामान्य उद्देश्य
पुस्तपालन शिक्षण के नीचे लिखे सामान्य उद्देश्य निर्धारित किये जा सकते हैं-

(1) छात्रों के पुस्तपालन में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली, मूल सिद्धान्तों तथा नियमों का ज्ञान कराना।
(2) भारत के छात्रों में योग्यतापूर्ण आर्थिक नागरिकता का विकास करना।
(3) छात्रों में सृजनात्मकता का विकास करना।
(4) छात्रों को देश की आर्थिक स्थिति, देशी एवं विदेशी व्यापार की स्थिति का ज्ञान कराना।
(5) छात्रों में तर्क तथा विश्लेषण शक्ति का विकास कराना।
(6) छात्रों को राष्ट्र की आर्थिक, व्यापारिक औद्योगिक तथा मौद्रिक नीतियों तथा उनमें विभिन्न पक्षों का ज्ञान कराना।
(7) छात्रों को इस योग्य बनाना कि वे स्व-नियोजन कर सकें।
(8) छात्रों में वाणिज्य, व्यापार तथा उद्योगों के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति काविकास करना।
(9) छात्रों में आवश्यक एवं वांछित व्यावसायिक कौशलों का विकास करना।
(10) छात्रों को व्यापार, वाणिज्य तथा उद्योग जगत से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष श्रम सेजुड़ी विभिन्न संस्थाओं, उनके कार्यों तथा महत्व आदि का ज्ञान कराना।
(11) छात्रों में कुशल व्यापारी के लिए आवश्यक गुणों व दक्षताओं का विकासकरना।
(12) छात्रों को इस योग्य बनाना कि वे अपने आर्थिक विचारों को सटीक एवंस्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकें।
(13) छात्रों में प्रबन्ध, प्रचार तथा विज्ञापनों का विश्लेषण कर उनकी वास्तविकताका पता लगाने की योग्यता का विकास करना।
(14) छात्रों को उत्पादन, विपणन तथा वितरण की प्रक्रिया का विस्तृत ज्ञानकराना।
(15) छात्रों में व्यापार-शिक्षा के प्रति रुचि का विकास करना।
(16) छात्रों को देश में कार्यरत आर्थिक संस्थाओं तथा बैंक, बीमा, डाकघर आदिकी कार्य-प्रणाली तथा इन संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सेवाओं का ज्ञान कराना।
(17) छात्रों को किसी व्यापारिक कार्यालय की कार्य प्रणाली तथा कार्यालय के लिएआवश्यक समय व श्रम बचाने वाले उपकरणों का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करना।
(18) छात्रों में संगठन करने तथा जोखिम उठाने की क्षमता को व योग्यताओं काविकास करना।

(2) वाणिज्य-शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य
वाणिज्य विषय पढ़ाने के जो उद्देश्य होते हैं वे सामान्य उद्देश्य कहलाते हैं तथावाणिज्य विषय के किसी विशेष पक्ष को पढ़ाने के जो उद्देश्य होते हैं वे विशिष्ट उद्देश्यकहलाते हैं। उदाहरण के लिए यातायात के साधनों के विषय में सकारात्मक अभिवृत्तिका विकास करना एक सामान्य उद्देश्य है जबकि भारत में सड़क यातायात के दोषों काज्ञान कराना' एक विशिष्ट उद्देश्य है। छात्र पारिवारिक बजट बनाने का कौशल विकसितकर सकेंगे। एक विशिष्ट कौशलात्मक उद्देश्य है। विशिष्ट उद्देश्य किसी भी पाठ याशीर्षक के लिए पृथक-पृथक् हो सकते हैं तथा इनका स्वरूप उपदेशनात्मक उद्देश्यों केरूप में होता है। इनका लेखन विशिष्टीकरण के साथ किया गया है। पुस्तपालन शिक्षणके विशिष्ट उद्देश्यों का अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की चर्चा नीचे की गई है।

पुस्तपालन शिक्षण के अनुदेशनात्मक उद्देश्य
(INSTRUCTIONAL OBJECTIVE OF BOOK-KEEPING TEACHING)

अध्यापक पुस्तपालन क्यों पढ़ाता है अथवा छात्र पुस्तपालन क्यों पढ़ते हैं ? इनप्रश्नों के उत्तर में ही पुस्तपालन के शैक्षणिक उद्देश्य निहित हैं। इन पश्नों के उत्तर के लिए हम कह सकते हैं कि पुस्तपालन छात्रों को ज्ञान प्रदान, उनमें कौशल का विकासकरने, उनमें रुचि जाग्रत करने, उनकी अभिवृत्तियों का विकास करने तथा प्राप्त ज्ञानको प्रयोग करने की क्षमता का विकास कर सकता है और इन्हीं कार्यों के लिए इसकाअध्ययन किया तथा करवाया जाता है। इन्हें हम यदि क्रमानुसार लिखें तो पुस्तपालनशिक्षण के नीचे लिखे उद्देश्य हो सकते हैं-

(1) ज्ञानात्मक उद्देश्य-पुस्तपालन शिक्षण ज्ञानात्मक उद्देश्य की परिपूर्ति करताहै। पुस्तपालन शिक्षण के बालक को पुस्तपालन से सम्बन्धित अनेक तथ्यों, सिद्धान्तों.प्रणालियों तथा पद्धतियों का ज्ञान प्राप्त करने में सहायता मिलती है। इस उद्देश्य केआधार पर हम कह सकते हैं कि पुस्तपालन शिक्षण अनुपालन से सम्बन्धित अनेकतथ्योंसिद्धान्तों तथा प्रविधियों का ज्ञान छात्रों को हो सकता है। यदि ब्लूम महोदय कीभाषा में कहें तो हम कह सकते हैं कि पुस्तपालन के ज्ञान से बालक अनेक तथ्यों कोपुनर्मरण कर सकेगा। पुस्तपालन से सम्बन्धित तथ्यों, सिद्धान्तों तथा प्रविधियों कापुनर्मरण करना ही इस उद्देश्य का विशिष्टीकरण (Specification) है।

(2) अवबोधात्मक उद्देश्य-अवबोधात्मक उद्देश्य तथ्यों, सिद्धान्तों तथा प्रविधियों कीतुलना करने, वर्गीकरण करने, सम्बन्ध स्थापित करने. श्रेणीबद्ध करने तथा अन्तर करनेकी योग्यता से सम्बन्धित होता है। पुस्तपालन का एक उद्देश्य छात्रों को विभिन्न तथ्यों,सिद्धान्तों. प्रत्ययों तथा प्रविधियों का अवबोध भी कराना है। इससे छात्र पुस्तपालन सेसम्बन्धित विभिन्न संप्रत्ययों, तथ्यों, सिद्धान्तों तथा पद्धतियों की तुलना कर सकेंगे, उनकेमध्य भेद कर सकेंगे, उनका वर्गीकरण कर सकेंगे तथा उनके मध्य निहित अन्तर कोस्पष्ट कर सकेंगे। पुस्तपालन विषय में अनेक नये प्रत्यय, तथ्य, सिद्धान्त तथा पद्धतियाँहोती हैं। इनके मध्य अन्तर जानना आवश्यक है, इनकी परस्पर तुलना करना भी अनेकस्थलों पर आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार इनको वर्गीकृत तथा श्रेणीबद्ध करनाभी आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार इनको वर्गीकृत तथा श्रेणीबद्ध करना भीआवश्यक है। इन कार्यों की पूर्ति हेतु हम पुस्तपालन के द्वारा अवबोधात्मक उद्देश्य कीप्राप्ति करते हैं।

(3) कौशलात्मक उद्देश्य-पुस्तपालन में छात्रों को विभिन्न प्रकार के कौशलों काभी विकास करना पड़ता है। छात्रों को अनेक प्रकार के गणितीय तथा संगठनात्मक(Computational) कौशलों का विकास करना पड़ता है। इसके अलावा छात्रों कोस्वच्छता, शुद्धता के साथ काम करने तथा त्रुटियों का पता लगाने का कौशल भीपुस्तपालन शिक्षण के द्वारा किया जाता है। बी० एस० ब्लूम के अनुसार कौशलात्मकउद्देश्य के निम्नांकित विशिष्टीकरण हैं जिन्हें पुस्तपालन के सन्दर्भ में नीचे लिखा गयाहै-छात्रों की इस प्रकार सहायता करना जिससे कि वे

(i)संख्याओं को शुद्ध, सही, सुन्दर तथा शीघ्रतापूर्वक लिख सकें।
(ii) संख्याओं के जोड़, गुणा, भाग तथा घटाने की क्रियाओं को शीघ्रता व शुद्धताके साथ कर सकें।
(iii) क्रेडिट तथा डेबिट पक्षों की संख्याओं को सफलतापूर्वक तुलना कर सकें तथाउनके सही शेष निकाल सकें।
(iv) छात्र गणितीय त्रुटियों को न करें तथा जब हो ही जाये तो उन्हें शीघ्र पहचानकर उन्हें शुद्ध कर सकें।
(v) पुस्तपालन से सम्बन्धित विभिन्न खातों तथा बहियों में शुद्धता के साथप्रविष्टियाँ कर सकें।

(4) रुच्यात्मक उद्देश्य-पुस्तपालन शिक्षण का एक उद्देश्य यह भी है कि छात्रों मेंपुस्तपालन के लिए आवश्यक रुचि उत्पन्न कर दी जाये। पुस्तपालन के द्वारा छात्रों मेंलेखा-विधि तथा पुस्तपालन के प्रति वांछित रुचि उत्पन्न की जानी चाहिए क्योंकि जबतक छात्रों में रुचि नहीं होगी वे उपयुक्त प्रेरणा के साथ कार्य नहीं कर सकते हैं।पुस्तपालन में छात्रों को रुचि उत्पन्न होने पर वे-

(i) पुस्तपालन से सम्बन्धित अतिरिक्त पुस्तकें पढ़ने में रुचि लेंगे।
(ii) पुस्तपालन से सम्बन्धित तथ्यों, सिद्धान्तों तथा पद्धतियों को जानने मेंजिज्ञासा प्रदर्शित करेंगे।
(iii) पुस्तपालन से सम्बन्धित क्रिया-कलापों में उत्साह के साथ सक्रिय योगदान करेंगे।
(iv) पुस्तपालन से सम्बन्धित तथ्यों, सिद्धान्तों तथा पद्धतियों पर परस्पर परिचर्चा करेंगे।
(v) पुस्तपालन से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान उन्हें आत्म संतोष प्रदान करेगा।

(5) ज्ञान-प्रयोग उद्देश्य-ज्ञान उस समय तक जीवनोपयोगी नहीं है जब तक किव्यावहारिक जीवन में उसका उपयोग न हो। ऐसा ज्ञान केवल सैद्धान्तिक तथा केवलज्ञान के लिए ही होता है। वह मात्र एक अनुपयोगी अलंकार है जो केवल सजावट केकाम आता है. यह व्यर्थ है। ज्ञान ऐसा हो जिसे छात्र व्यावहारिक जीवन में भी प्रयोगकर सकें। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए पुस्तपालन के सम्बन्ध में भी कहा जासकता है कि पुस्तपालन का छात्रों को इस प्रकार ज्ञान प्रदान किया जाये कि प्राप्तज्ञान का छात्र अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग कर सकें। यह तभी सम्भव है जबशिक्षक छात्रों को नीचे लिखे कार्यों में दक्ष कर सके-

(i) शुद्ध एवं सही गणनायें करने की योग्यता का विकास।
(ii) खातों तथा लेखों की प्रमुख संख्याओं तथा मदों का ज्ञान ।
(iii) उन परिस्थितियों का ज्ञान जिनमें प्रायः लेखा सम्बन्धी त्रुटियाँ सम्भव हैं।
(iv) दैनिक जीवन में पुस्तपालन के सिद्धान्तों का प्रयोग करना।

(6) अभिवृत्त्यात्मक उद्देश्य-पुस्तपालन शिक्षण के द्वारा कतिपय अभिवृत्तियों काभी विकास किया जा सकता है। पुस्तपालन शिक्षण नीचे लिखी अभिवृत्तियों का विकासकरने में हमारी सहायता करता है-

(i) स्वच्छता, शुद्धता, समयबद्धता तथा उत्तरदायित्व की भावना का विकास करनेमें सहायता करके पुस्तपालन छात्रों में अनेक सदवृत्तियों का विकास करती है।
(ii) छात्रों में आँकड़ों. रकमों तथा गणितीय संगणनाओं के प्रति अनुकूलअभिवृत्तियों के विकास में सहायता करके नवीन दृष्टिकोण का विकास करती है।
(iii) विषय के प्रति नवीन तथा अतिरिक्त साहित्य में रुचि का विकास करके।
(iv) यह अनुभूति कराना कि किसी भी व्यवसाय की सफलता बहुत बड़ी मात्रा मेंउसके हिसाब-किताब रखने की प्रणाली तथा शुद्धता पर निर्भर है
(v) व्यावसायिक लेन-देनों तथा सौदों को उनके वित्तीय प्रभावों के सन्दर्भ मेंअवलोकित करने की क्षमता का विकास करने में सहायता करके।

पुस्तपालन शिक्षण के सोपान

पुस्तपालन का शिक्षण करते समय किन-किन सोपानों की आवश्यकता होती है।यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम पुस्तपालन किस उपागम के द्वारापढ़ा रहे हैं। फिर भी पुस्तपालन-शिक्षण को सफल बनाने के लिए शिक्षक को कुछसुनिश्चित कदम उठाने पड़ते हैं। यही कदम शिक्षण के सोपान कहलाते हैं। पुस्तपालनका एक सफल शिक्षक अपनी कक्षा को पढ़ाने के लिए सामान्यतः नीचे लिखे सोपानों काप्रयोग करता है-

(1) योजना निर्माण-पुस्तपालन शिक्षण के लिये सबसे प्रथम कदम शिक्षण केलिए योजना निर्माण करना है। जब तक शिक्षक अपने शिक्षण के लिए वार्षिक, मासिक,इकाई तथा दैनिक योजना नहीं बना लेता तब तक उसके लिए सफल एवं प्रभावीशिक्षण सम्भव नहीं है। योजना बनाकर शिक्षण-कार्य करने से अनुदेशनात्मक उद्देश्यों कीसहज-प्राप्ति सम्भव है।

(2) कार्य-विधि निर्धारण-शिक्षण की योजना बना लेने के उपरान्त शिक्षक के लिएयह आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी कार्य-विधि निश्चित करे। उसे किस विधि सेअपने क्रिया-कलापों को कक्षा-कक्ष में सम्पादित करना है, उसे किन-किन क्रियाओं कीआवश्यकता पड़ेगी, उन क्रियाओं के लिए कौन-कौन सी सामग्री तथा किन-किनव्यक्तियों की सहायता की आवश्यकता होगी, आदि का निर्धारण शिक्षक को कक्षा में जानेसे पूर्व ही कर लेना चाहिए। यदि शिक्षक उपर्युक्त शिक्षा विधि का निर्धारण कर लेता हैतो उसे विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण में कठिनाई नहीं आती है और वह शिक्षा के उद्देश्योंकी प्राप्ति सहज ही कर लेता है।

(3) शिक्षण-विधि का निर्धारण-विषय-वस्तु, छात्रों के स्तर तथा उपलब्ध साधनएवं सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षक को यह भी निर्धारित करना पड़ता है किउसे विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण के लिए किस शिक्षा-विधि का प्रयोग करना चाहिए ।पुस्तपालन शिक्षण में अनेक शिक्षण-विधियों का प्रयोग किया जाता है जैसेव्याख्यान-पद्धति, पाठ्य-पुस्तक पद्धति, वादविवाद पद्धति, प्रयोजना पद्धति, इकाईपद्धति, प्रयोगशाला पद्धति आदि-आदि। किन्तु ये सभी पद्धतियाँ हर विषय-वस्तु के लिएउपयुक्त नहीं, और न ये हर स्तर के छात्रों के लिए ही उपयुक्त हैं। शिक्षक को यहनिश्चित करना पड़ता है कि विषय-वस्तु के स्वभाव तथा छात्रों के स्तर को देखते हुएकौन-सी विषय-वस्तु उपयुक्त रहेगी। कक्षा-कक्ष में जाने से पूर्व शिक्षक को शिक्षण-विधिके सम्बन्ध में भी निश्चित कर लेना पड़ता है।

(4) उपागम का निर्धारण-पुस्तपालन शिक्षण के लिए सामान्यतः जर्नल उपागमलेजर उपागम, कैशबुक उपागम तथा समीकरण उपागम प्रयोग में लाये जाते हैं। शिक्षकको कक्षा-कक्ष में जाने से पूर्व यह भी निश्चित करना पड़ेगा कि उसे किस उपागम काप्रयोग करते हुए आगे बढ़ना है। उपागम के आधार पर ही शिक्षक यह निश्चित करता है कि उसे कहाँ से तथा किस प्रकार से आगे बढ़ना है। उपागम के निश्चय पर हीअध्यापक की कार्य-शैली निर्भर करती है। वह कहाँ से पढ़ाना शुरू करे? वह सबसेपहले जर्नल में प्रविष्टियों करना सिखाये, या लेजर या कैशबुक के शिक्षण से प्रारम्भ करेया फिर सर्वप्रथम अन्तिम खातों के सम्बन्ध में छात्रों को बताये।

(5) कौशल का विकास-पुस्तपालन छात्रों को यदि केवल सैद्धान्तिक ज्ञान हीप्रदान करता है तो वह ज्ञान व्यर्थ है क्योंकि पुस्तपालन एक व्यावहारिक विषय है।इसका अपना व्यावहारिक पक्ष है जो कहीं अधिक महत्वपूर्ण तथा जीवनोपयोगी है।पुस्तपालन का व्यावहारिक ज्ञान तभी सम्भव है जब शिक्षक अपने शिक्षण के द्वारा छात्रोंमेंपुस्तपालन से सम्बन्धित विभिन्न कौशलों का विकास कर दे। इस तथ्य के आधार परकहा जा सकता है कि पुस्तपालन शिक्षण के द्वारा छात्रों में पुस्तपालन से सम्बन्धित कुछविशिष्ट कौशलों का विकास करना चाहिए। अतः पुस्तपालन शिक्षण में सदैव यह प्रयासकिये जायें कि छात्रों में कौशलों का विकास हो। इसके लिए शिक्षक को कौशल-पाठों काविकास करके उनका शिक्षण छात्रों को करना चाहिए। सारांश रूप में हम कह सकते हैंकि पुस्तपालन शिक्षण में शिक्षक का अन्तिम उद्देश्य अपने शिक्षण द्वारा पुस्तपालन सेसम्बन्धित कौशलों का विकास करना है।

पुस्तपालन शिक्षण की विधियाँ

शिक्षण-विधियों से हमारा तात्पर्य उन व्यवस्थित, क्रमबद्ध तथा पूर्व-निर्धारित तरीकोंसे है जिनके अनुसार किसी विषय की सामग्री छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत की जाती है।पुस्तपालन विषय की सामग्री को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करने की बहुत सी विधियों काप्रयोग शिक्षकों द्वारा किया जाता है। इन विधियों में पाठ्य-पुस्तक पद्धति, भाषण,प्रयोजना पद्धति. वादविवाद पद्धति, इकाई पद्धति, प्रयोगशाला पद्धति, प्रदर्शन पद्धति.आदि-आदि। इन पद्धतियों का विस्तारपूर्वक परिचय प्रस्तुत पुस्तक के अन्यत्र अध्याय मेंदिया गया है।

पुस्तपालन शिक्षण के उपागम

पुस्तपालन शिक्षण के लिए प्रमुख रूप से चार उपागमों का प्रयोग किया जाताहै-जर्नल उपागम, लेजर उपागम, कैशबुक उपागम तथा बैलेन्स शीट अथवा समीकरणउपागम। इन विभिन्न उपागमों का भी परिचय प्रस्तुत पुस्तक के एक पृथक अध्याय मेंकिया गया है। इस अध्याय के महत्व को देखते हुए केवल समीकरण उपागम कोउदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया गया है।

समीकरण उपागम

पुस्तपालन शिक्षण के वैसे तो अनेक उपागम हैं किन्तु इनमें समीकरण उपागमसबसे महत्वपूर्ण है। इस उपागम के द्वारा छात्रों को पुस्तपालन का शिक्षण चिट्ठा(Balance Sheet) से किया जाता है। इसमें भी सर्वप्रथम छात्रों को सम्पत्ति (Assets)का अर्थ स्पष्ट किया जाता है। पुस्तपालन शिक्षण को व्यावहारिक तथा वास्तविकताप्रदान करने के लिए सर्वप्रथम छात्रों को स्वयं की सम्पत्तियों जैसे उसकी पुस्तकें. पेन,खेत, मकान आदि की सहायता से यह स्पष्ट किया जाता है कि यह सब स्वयंइनकी हैं। वे अपनी इच्छानुसार इनका प्रयोग कर सकते हैं। निजी सम्पत्ति को स्पष्ट करने के बाद किसी व्यापारी की सम्पत्ति का उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया जा सकता है कि

सम्पत्ति = दायित्व + पूँजी
Assets = Liabilities + Capital
A=L+C

इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मैसर्स राम एण्ड पार्टनर केपास नीचे लिखी सम्पत्तियाँ हैं-
नकद रोकड़    5000 रु
तैयार माल    22000 रु
साज सामान    23000 रु
कुल योग    50000 रु

इस उदाहरण के अनुसार मैसर्स राम एण्ड पार्टनर के पास कुल मिलाकर50,000-00 रुपये की सम्पत्तियाँ हैं। इन सम्पत्तियों को राम तथा उसके पार्टनर किसी भी प्रकार प्रयोग कर सकते हैं। ये सम्पत्तियाँ ही उनकी पूँजी है। इन्होंने मैसर्स श्याम एण्ड सन्स से 5000 हजार का माल और उधार क्रय किया। इससे मैसर्स राम एण्ड पार्टनर के पास सम्पत्तियाँ बढ़कर 50,000 + 5,000 = 55,000 हजार हो गई। क्योंकि श्याम एण्ड सन्स से यह माल उधार खरीदा है और इसका अभी भुगतान नहीं किया गया है इसलिए सम्पत्तियाँ (Assets) बढ़ जाने पर भी इनकी पूँजी नहीं बढ़ी है। यह 5000 रु० का मैसर्स राम एण्ड पार्टनर पर मैसर्स श्याम एण्ड सन्स का दायित्व है। यह दायित्व तथा पूँजी मिलाकर ही सम्पत्तियाँ बनती हैं। अतः यह सही है कि A =L + अर्थात् दायित्व(Liabilities) तथा पूँजी (Capital) का योग ही सम्पत्ति (Assets) होता है।

प्रत्येक व्यापार में सम्पत्तियाँ, दायित्व तथा पूँजी घटती बढ़ती रहती है। इनका घटाव-चढ़ाव भी एक-दूसरे के अनुपात में होता है। ऊपर के उदाहरण में ही जब मैसर्स राम एण्ड पार्टनर मैसर्स श्याम एण्ड सन्स को उधार माल क्रय करने के पाँच हजार रुपये अदा कर देगें तो मैसर्स राम एण्ड पार्टनर की रोकड़ पाँच हजार से कम हो जायेगीअर्थात् उनकी सम्पत्तियाँ भी पाँच हजार से कम हो जायेगी किन्तु इसके साथ ही साथ मैसर्स श्याम एण्ड सन्स के प्रति उनका पाँच हजार रुपये का दायित्व भी कम हो जायेगा और अन्ततोगत्वा A = L+c का समीकरण ज्यों का त्यों बना रहेगा।

मैसर्स राम एण्ड पार्टनर की स्थिति इस प्रकार है-
A = L + C
50000 = 0 + 50000

मैसर्स श्याम एण्ड सन्स से 5000 रु० का माल खरीदने पर स्थिति इस प्रकार रहेगी-

A = L + C
55000 = 5000 + 50000

मैसर्स श्याम एण्ड सन्स को 5000 रु० दे देने से सम्पत्ति में से रोकड के पाँच हजार कम हो जायेंगे तथा दायित्व भी कम हो जायेंगे।

भुगतान के बाद स्थिति ऐसी होगी
A = L + C
50000 = 0 + 50000

यदि व्यापार में लाभ होता है तो सम्पत्तियों तथा देनदार बढ़ते हैं और हानि की स्थिति में या तो लेनदार बढ़ते चले जाते हैं या पूँजी तथा सम्पत्तियाँ कम होती चलीजाती हैं किन्तु A=L+C सदैव बना रहता है।

सम्पत्तियों, दायित्वों तथा पूँजी के घटाव-चढ़ाव को जानने के लिए व्यापारिकसंस्था टी' खातों (T. account) को बनाया करते हैं। टी' खातों में सम्पत्तियों डेबिट पक्ष मेंलिखे जाते हैं तथा समस्त दायित्व एवं पूँजी क्रेडिट पक्ष में लिखे जाते हैं इसलिए जब हम अन्तिम खाते बनाते हैं तो डेबिट तथा क्रेडिट पक्षों के योग बराबर होते हैं।

समीकरण उपागम के अन्तर्गत सर्वप्रथम 'टी' खाते तथा अन्तिम खातों को तैयारकिया जाता है, फिर जर्नल एवं लेजर की तरफ बढ़ा जाता है। समीकरण उपागम मेंभले ही हम पहले ही खाते बनाकर अपनी सम्पत्ति, दायित्व तथा पूँजी का पता लगा लें.इससे प्रतिदिन के व्यापार का पता नहीं चलता है। इसलिए जर्नल तथा लेजर बनानेआवश्यक हो जाते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यापारिक संस्थान में जर्नल से लेकर अन्तिमखाते तक का पूरा चक्र पूरा किया जाता है। इसलिए बहीखाता शिक्षण में भी शिक्षक कोचाहिए कि वह किसी भी उपागम तथा शिक्षण विधि को लेकर आगे बढ़े उसे पुस्तपालनका चक्र यथाशीघ्र पूरा कर लेना चाहिए। इस चक्र को हम कुछेक रूप में नीचे लिखेअनुसार प्रदर्शित कर सकते हैं-


कौशल विकास

पुस्तपालन शिक्षण में ज्ञानात्मक पक्ष के रथान पर कौशलात्मक पक्ष अधिक प्रबलहै। इसलिए पुस्तपालन शिक्षण में कौशल विकास की ओर शिक्षक को विशेष प्रयासकरने चाहिए। कौशलों के विकास के लिए शिक्षक नीचे लिखे कार्य कर सकता है-

(1) दी हुई संख्याओं, सौदों तथा लेन-देनों के आधार पर विभिन्न बहियों तथापुस्तकों में प्रविष्टियों करने का अभ्यास अधिक से अधिक मात्रा में कराना।
(2) विभिन्न खातों के योग तथा शेष निकालने का अभ्यास कराना।
(3) तलपट तथा अन्तिम खाते तैयार कराना।
(4) योगों के अन्तरों के कारणों की खोज करने के अवसर देना।
(5) बैंक पास-बुक कैश-बुक के अन्तरों की खोज करने के अवसर देना।
(6) तलपट तथा हानि-लाभ खातों के आधार पर सकल तथा शुद्ध-लाभ या हानिज्ञात करने के प्रयास करना।
(7) किसी व्यवसाय की सम्पत्तियों, दायित्वों तथा पूँजी की गणना करने केअवसर प्रदान करना।
(8) डाकघरों, बैंक तथा अन्य ऐसे ही अधिक प्रतिष्ठानों की कार्य-प्रणाली काव्यावहारिक ज्ञान देना।
(9) व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के विभिन्न आवश्यक प्रपत्रों को व्यवस्थित तथा क्रम सेसँभालकर रखने का अभ्यास कराना।
(10) पुस्तपालन से सम्बन्धित प्रश्नों को हल करने के लिए आवश्यक प्रेरणा प्रदान-करना।

अभ्यास-प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न

1. पुस्तपालन शिक्षण के सामान्य तथा विशिष्ट उद्देश्यों की विवेचना कीजिये।
2 उच्चतर माध्यमिक स्तर पर पुस्तपालन शिक्षण के मुख्य उद्देश्यों की व्याख्या कीजिये।
3. पुस्तपालन शिक्षण के विभिन्न सोपानों को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिये।
4. पुस्तपालन शिक्षण का समीकरण उद्गम क्या है ? उदाहरण देकर व्याख्या कीजिये।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

1. पुस्तपालन शिक्षण छात्रों की कुछ अभिवृत्तियों को सुधारता है। इस कथन की व्याख्या कीजिये।
2. पुस्तपालन शिक्षण के कोई पाँच विशिष्ट उद्देश्य लिखिये।
3. पुस्तपालन के किसी एक शीर्षक को चुनें तथा उसे पढ़ाने के लिए किन्हीं चार* विशिष्ट उद्देश्यों का लेखन व्यवहारगत परिवर्तन के रूप में कीजिये।
4. तलपट पढ़ाने के लिए किन्हीं चार विशिष्ट उद्देश्यों का लेखन कीजिये ।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. ........उस समय तक जीवनोपयोगी नहीं है जब तक कि व्यावहारिक जीवनमें उसका उपयोग न हो।
2. .......शिक्षण के द्वारा व्यक्तिगत अभिवृत्तियों का विकास किया जा सकता है।
3. प्रथम सोपान पुस्तपालन शिक्षण के लिए कौन-सा है ?
(अ) कार्य-विधि निर्धारण
(ब) उपागम का निर्धारण
(स) कौशल का इतिहास
(द) योजना-निर्माण

उत्तर-1. ज्ञान, 2. पुस्तपालन, 3.(द) योजना निर्माण ।

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