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कुषाण युग (Kushan Era)
दीर्घ एवं लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. कुषाण कौन थे ? कनिष्क के जीवन तथा उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
कनिष्क के राज्यकाल का वर्णन कीजिए।
अथवा
"कनिष्क एक महान विजेता होने के अतिरिक्त बौद्ध धर्म के इतिहास में विशिष्ट
स्थान रखता था।'' इस कथन की विवेचना कीजिए।
अथवा
प्राचीन इतिहास में कनिष्क की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
कुषाणकालीन राजनीतिक दशा का वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय
प्रश्न 1. कुषाण कौन थे ? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
2. कनिष्क के जीवन के विषय में आप क्या जानते हैं ?
3. कनिष्क की शासन पद्धति को समझाइये।
4. कनिष्क का बौद्ध धर्म के प्रति रुझान बताइए।
अथवा
कनिष्क का बौद्ध धर्म के साथ लगाव बताइए।
5. कनिष्क प्रथम की उपलब्धियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
6. चरक कौन थे?
7. बौद्ध धर्म / सम्प्रदाय का कनिष्क के साथ क्या कोई सम्बन्ध था ?
उत्तर -कुषाण राजवंश
कुषाण यू-ची जाति की एक शाखा थे। कुषाणों की उत्पत्ति तथा उनकी राष्ट्रीयता
का प्रश्न एक विवाद का विषय है। कुछ विद्वान 'कुषाण' शब्द को कुल या वंश का
सूचक मानते हैं जबकि कुछ अन्य लोगों का विचार है कि कुषाण नामक व्यक्ति इस
वंश का संस्थापक अथवा आदिपुरुष था तथा उसी के नाम पर उसके वंशजों को 'कुषाण'
कहा गया है। इसके विपरीत चीनी स्रोतों में कुषाण शब्द को प्रादेशिक संज्ञा
माना गया है। इसी प्रकार कुषाणों की राष्ट्रीयता का प्रश्न भी विद्वानों के
बीच विवाद का विषय है। विभिन्न विद्वान उन्हें तुर्कों, शकों, मंगोलों, हूणों
आदि के साथ सम्बन्धित करते हैं।
द्वितीय शताब्दी ई. पूर्व के चतुर्थ दशक के लगभग सम्भवतः 165 ई. पूर्व में
तुर्की खानाबदोश जाति मूंग-नू ने उत्तर पश्चिमी चीन के कान्सू प्रान्त के
अपने पड़ोसी यू-ची जाति को पूर्णतया पराजित करके उसे अपनी मूल भूमि छोड़ने को
बाध्य किया। यू-ची जाति पश्चिमी चीन में गोबी प्रदेश में रहती थी, इसी के
पड़ोस में एक अन्य जाति भी रहती थी यही यंग जाति के नाम से जानी जाती थी।
ह्यूंग-नू नरेश लाओ शंग ई. पूर्व 174-160 ने यू-ची जाति पर आक्रमण किया और
उनके राजा को मार डाला। कहते हैं विजेता ने अपनी क्रूरता के व्यवहार के कारण
उस मरे हुए यू-ची नरेश के कपाल (shule) का जलपात्र बनाया था।
यू-ची की दूसरी शाखा सर नदी के प्रदेश में गयी, यहीं शक जाति रहती थी। यू-ची
ने शकों को परास्त करके सर प्रदेश पर अपना अधिकार जमाया, यू-ची की यह शाखा
तापू-ची कहलाई। यू-ची अधिक समय तक सर प्रदेश में नहीं रह सके। 140 ई. पूर्व
एक अन्य जाति यू-सुन के राजकुमार ने डूंग-नू की सहायता से यू-ची पर आक्रमण
करके उसे परास्त किया।
यू-ची जाति पंच शाखाओं में बंट गयी थी। प्रत्येक शाखा के अधीन एक राज्य था।
इन राज्यों के नाम निम्नलिखित हैं -
1. हिऊ-मी (Heedu-mi) वाकहान
2. शुआंग-मी (Chouang-mi) चित्राल प्रदेश
3. कुई-शुआंग (Kouei-chouang) गन्धा
4. ही-तुन (Hi-tun) परवान
5. ताउ-मी (Tou-mi) इसके सम्बन्ध में अनेक मतभेद हैं। सम्भवतः यह काबुल के
समीप कोई प्रदेश था।
कनिष्क : कुषाण शक्ति का चरमोत्कर्ष
कनिष्क कुषाण वंश का सबसे महान राजा था जो विम कैडफिसेस के पश्चात् कुषाण
राजगद्दी पर बैठा। उसके लगभग बारह अभिलेख तथा बहुसंख्यक स्वर्ण एवं ताम्र
मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। बौद्ध साहित्य, अभिलेख तथा सिक्कों के आधार पर हम
उसके इतिहास का पुनर्निर्माण कर सकते हैं।
निस्सन्देह कनिष्क भारत के कुषाण राजाओं में सबसे शक्तिशाली राजा था। वह महान
विजयी और बौद्ध धर्म का संरक्षक था और इस रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य की सैनिक
योग्यता तथा अशोक का धार्मिक उत्साह दोनों उसमें समान मात्रा में उपलब्ध थे,
फिर भी कनिष्क के विषय में हमारा ज्ञान अधिक नहीं है और उसकी तिथि तो आज भी
हमारे लिए एक पहेली ही है। यह नहीं मालूम कि उसका विम कैडफिसेस के साथ क्या
सम्बन्ध था, यद्यपि दोनों के बीच एक अल्पकालिक अन्तर की सम्भावना वर्जित
नहीं, उनका क्रम वस्तुतः निश्चित हो चुका है। इतिहासकार मार्शल के अनुसार विम
कैडफिसेस की मृत्यु के पश्चात् कुषाण साम्राज्य में कुछ अव्यवस्था उत्पन्न हो
चुकी थी, विम कैडफिसेस की मृत्यु के लगभग 20 वर्ष बाद कनिष्क प्रथम का उदय
हुआ था।
यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता है कि कनिष्क और विम कैडफिसेस में कितने
समय का अन्तर है। स्टेनकोनो का मत है कि विम कैडफिसेस यूचियों की बड़ी शाखा
का था तथा कनिष्क छोटी शाखा का था, परन्तु यह मत स्वीकार नहीं किया जा सकता
है, चीनी साहित्य में कनिष्क को यू-चियों की बड़ी शाखा का राजा बताया गया है,
मथुरा के देवकुल में विम-कैडफिसेस और कनिष्क दोनों की मूर्तियां मिली हैं,
अतः सम्भव है दोनों एक ही वंश के हों।
कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि - इस विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद है।
मि. कैनेडी तथा फ्लीट कनिष्क को प्रथम शताब्दी का मानते हैं। कैनेडी के तर्क
इस प्रकार हैं -
1. कनिष्क ने 58 ई. पूर्व में चौथी बौद्ध संगीति की और इसी उपलक्ष्य में उसने
वर्ष सम्वत् चलाया था।
2. ई. पूर्व प्रथम शताब्दी में उत्तर-पश्चिम के स्थानीय मार्ग से चीन और भारत
में रेशम का व्यापार होता था। इस व्यापार में जो प्रचुर स्वर्ण प्राप्त होता
था उसी से कनिष्क की स्वर्ण मुद्रा चली थी।
3. ह्वेनसांग का कथन है कि महात्मा बुद्ध ने यह भविष्यवाणी की थी कि मेरे
निर्वाण वर्ष के बाद , कनिष्क नामक एक राज्य होगा, निर्वाण की तिथि 481-400 =
81 ई. पूर्व बताई गई है परन्तु इन तर्कों में सच्चाई नहीं दिखाई देती है।
1. बौद्ध ग्रन्थों में कनिष्क के बौद्ध होने और चौथी बौद्ध संगीति करने के
उल्लेख मिलते हैं, परन्तु कहीं भी यह लिखा नहीं है कि उसने इस अवसर पर किसी
नवीन सम्वत् की स्थापना की हो। अश्वघोष ने चौथी बौद्ध संगीति में भाग लिया
था, परन्तु उसने भी नये सम्वत् चलाने के विषय में कुछ नहीं कहा है।
2. चीन और भारत के बीच होने वाला रेशम का व्यापार कनिष्क के बहुत पहले से
प्रारम्भ हो चुका था। अर्थशास्त्र में भी इस व्यापार का उल्लेख है। पेरिप्लस
से प्रकट होता है कि भारतवर्ष में प्रचुर मात्रा में स्वर्ण ईसा की पहली
शताब्दी में आया था, ई. पूर्व पहली शताब्दी में।
3. ह्वेनसांग का कथन इस तिथि के विषय में विश्वसनीय नहीं है।
फ्लीट महोदय ने भी कनिष्क के सिंहासन की तिथि 58 ई. पूर्व माना है। उनका मत
है कि कुषाण वंश में कनिष्क पहले हुआ और दोनों कैडफिसेस द्वितीय की मद्राओं
के साथ पायी गयी है कैडफिसेस की मुद्राओं के साथ नहीं, अतः कनिष्क किसी भी
प्रकार कैडफिसेस प्रथम का पूर्वगामी नहीं हो सकता है।
तक्षशिला में खुदाई से मिली वस्तुओं को देखकर मार्शल महोदय का कथन है कि
कनिष्क की स्वर्ण मुद्रओं का समय कैडफिसेस के बाद का है।
एलन महोदय का कथन है कि "कनिष्क की स्वर्ण मुद्राएं रोम सम्राट टाइट्स (79-81
ई.) की मुद्राओं से मिलती-जुलती हैं अतः कनिष्क ई. पूर्व प्रथम शताब्दी में
नहीं रखा जा सकता है। उपर्युक्त प्रयोगों से यही प्रकट होता है कि 58 ई.
पूर्व कनिष्क का राज्यारोहण नहीं हो सकता है।
डा. रमेश चन्द्र मजूमदार ने कनिष्क के सिंहासनारोहण की तिथि 248 ई. माना था
और इस मत का प्रतिपादन किया था कि इसी वर्ष एक नवीन सम्वत् की स्थापना की थी
जो इतिहास में यैकूटक कलचुरी चेदि सम्वत् के नाम से प्रख्यात हुआ परन्तु
मजूमदार का मत स्वीकार नहीं किया जाता है।
तिब्बती साक्ष्यों के आधार पर कनिष्क खेतान के विजयकीर्ति का समकालीन था,
परन्त विजयकीर्ति 248 ई. के बहुत पहले हुआ था। चीनी साहित्य त्रिपिटक से
ज्ञात होता है कि आन सौहकाओं (148-170 ई.) से संघ रक्षक के मार्ग भूमि सूत्र
का चीनी भाषा में अनुवाद किया था, संघ रक्षक कनिष्क का समकालीन था इससे प्रकट
होता है कि कनिष्क 170 ई. के पूर्व हुआ होगा पश्चात् नहीं।
आर. डी भण्डारकर महोदय ने 278 ई. को कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि माना था,
किन्तु तर्क 248 ई. के विपक्ष में है, अन्तिम प्रमुख मत (78 ई. का) टामस,
रैप्सन तथा राखलदास बनर्जी आदि विद्वानों का है, परन्तु डुब्रिया महोदय ने इस
मत को अस्वीकार करते हुए अपना तर्क दिया।
"विम कैडफिसेस ने 50 ई. के लगभग राज्य किया, अतः यदि हम कनिष्क के राज्यारोहण
की तिथि 78 ई. मान लें तो कैडफिसेस प्रथम और द्वितीय के राज्यकाल के लिए 28
वर्ष रहते हैं, इस तर्क में कोई बल नहीं है।"
मार्शल महोदय ने तक्षशिला में चिरस्तूप अभिलेख का पता लगाया है। इसमें 136
तिथि लिखी है, सम्भवतः यह तिथि विक्रम सम्वत् की है। अतः इस अभिलेख के
निर्माण की तिथि 78-79 के करीब रही होगी।
इन समस्त बातों को देखते हुए यही मानना अधिक न्यायसंगत होता है कि कनिष्क का
सिंहासनारोहण 78 ई. में हुआ था। इस मत के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत
किये जाते हैं -
1. चीनी साहित्य से इस बात का अनुमान लगाया जाता है कि कनिष्क 78 ई. के लगभग
सिंहासन पर बैठा था।
2. कुषाण राजाओं की निम्नलिखित तिथियां उनके अभिलेखों से ज्ञात होती हैं -
कनिष्क - 1 से 23 तक
नासिक - 24 से 28 तक
हुविष्क - 28 से 60 तक
वासुदेव प्रथम - 67 से 98 तक
इन तिथियों का क्रम एक है। ये किसी सम्वत की तिथियाँ हैं जिन्हें कनिष्क ने
प्रारम्भ किया था।
पार्थिया साम्राज्य से युद्ध - पार्थिया का एरियाना प्रदेश इस समय कुषाणों के
अधिकार में था, जिससे पार्थिया का इनसे संघर्ष चलता आ रहा था। शत्रुता का
दूसरा उदाहरण व्यापारिक था। इन कारणों से पार्थिया तथा कनिष्क का युद्ध हुआ।
इस साक्ष्य में चीनी साहित्य बतलाता है कि यहाँ के शासक देवपुत्र को कनिष्क
ने बुरी तरह पराजित किया था, नान-सी का समीकरण पर्थिया से किया जाता है।
चीन से युद्ध - कनिष्क के राज्यकाल में चीन में दास वंश के साम्राज्य का यह
बड़ा शक्तिशाली और साम्राज्यवादी राजवंश था। इसके सेनापति पान-चाऊ ने खेतान,
काशगर, काशसहर आदि को जीतकर सम्पूर्ण चीनी तर्किस्तान को चीन के अधिकार में
कर लिया था। उसकी राज्य सीमा कनिष्क राज्य सीमा को छूने लगी थी, अतः कनिष्क
ने उसे रोकने के उपाय सोचे।
चीनी ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के
लिए निश्चित कदम उठाये। कनिष्क ने चीनी राजा के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि वह
अपनी राजकमारी का विवाह उसके साथ कर दे परन्तु सम्राट ने इस प्रस्ताव को
ठुकरा दिया और कनिष्क के राजदूत को बन्दी बना दिया।
इस सूचना को पाते ही कनिष्क ने चीन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी थी। इस
आक्रमण के लिए उसने 70,000 अश्वारोहियों को भेजा, परन्तु शीत और पर्वतीय
मार्ग में कठिनाई के कारण सेना का एक भाग नष्ट हो गया था, पाना-चाऊ से खेतान
में हार खानी पड़ी। इस पराजय के पश्चात् कनिष्क को प्रतिवर्ष चीन को कर देने
का वचन देना पड़ा।
कनिष्क की इस पराजय के समर्थन में एक जनश्रुति का उल्लेख किया जाता है जिसके
अनुसार कनिष्क कहता है कि, ''मैनें तीनों दिशाओं को अधीन कर लिया है - केवल
उत्तरी प्रदेश ही आत्मसमर्पण करने के लिए आया है।''
रोम साम्राज्य का सम्बन्ध - इस समय रोम तथा पार्थिया के बीच शत्रुता चल रही
थी। पार्थिया कुषाण साम्राज्य का भी शत्रु था। अतः स्वाभाविक था कि उभयनिष्ठ
शत्रु के विरुद्ध रोम साम्राज्य और पार्थिया साम्राज्य के बीच मित्रता होती,
कुषाणकाल में भारत और रोम के बीच व्यापारिक एवं कूटनीतिक सम्बन्ध बढ़े। दोनों
ने एक-दूसरे की राजसभा में अपने राजदूत भेजे थे।
कनिष्क का साम्राज्य विस्तार - कनिष्क का साम्राज्य अफगानिस्तान, बैक्ट्रिया,
काशगर, खेतान तथा यारकन्द तक था। इसके अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसका
साम्राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश, उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त तथा सिन्ध के
उत्तर में भावलपुर राज्य तक था। कनिष्क के अनेक लेख मथुरा में भी मिले हैं,
अतः मथुरा उसके अधीन अवश्य रहा होगा। कनिष्क के सिक्के श्रावस्ती, सारनाथ,
कोशाम्बी इत्यादि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। पूर्व में गाजीपुर तथा गोरखपुर
तक उसके सिक्के प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार पूर्व में वाराणसी तक कनिष्क
राज्य था, यद्यपि बंगाल और बिहार में भी कनिष्क के सिक्के मिले हैं परन्तु इन
प्रान्तों का उसके साम्राज्य में होना निश्चित नहीं होता है। बहालपर के निकट
सई बिहार नामक स्थान पर कनिष्क के नाम का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है। सांची
(भोपाल, मध्य भारत) में जो प्राचीनकाल में पूर्वी मालवा की राजधानी थी, उसके
एक उत्तराधिकारी का एक लेख मिला है। पश्चिमी भारत में शकों अधीन क्षत्रपों की
जो शासन व्यवस्था थी, उसका स्वामित्व कुषाणों के अधीन था। राजपूताना, मालवा
और काठियावाड़ भी कनिष्क के राज्य के अन्तर्गत थे। यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा
जा सकता है कि काश्मीर पर कनिष्क के अधिकार के एक से एक प्रमाण मिलते हैं।
राजतरंगिणी में कनिष्क के काश्मीर में शासन प्रबन्ध का उल्लेख मिलता है -
अथा भवन स्वर्णामांकपुर भय विधायिनः।
टुष्क कनिष्काख्यास्त्रयस्तमैव पार्थिवः।।
प्राच्य राज्य क्षण तेषां प्रायः काश्मीर मण्डलम्।
भोजयमस्तेस्म बौद्धानां प्रव्रज्योर्जित चेतसाम्।। (कल्हण - राजतरंगिणी)
इस प्रकार देखा जाता है कि कनिष्क का साम्राज्य एक बड़े भू-भाग पर था, अपने
समय के सबसे प्रभावशाली शासकों में कनिष्क अवश्य ही रहा होगा।
शासन प्रणाली - कनिष्क की शासन प्रणाली का विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं होता
है किन्तु कुछ स्थूल बातें अवश्य मालूम होती है। उसके सारनाथ वाले लेख से
उसकी शासन व्यवस्था पर कुछ प्रकाश पड़ता है। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि
उसके अपने विशाल भू-भाग वाले साम्राज्य का शासन प्रबन्ध क्षत्रपों द्वारा
होता था। उसके साम्राज्य का पूर्वी भाग महाक्षत्रप खरपल्लान तथा क्षत्रप
बनस्पर द्वारा शासित होता था। खरपल्लान उसका महाक्षत्रप था जो शायद मथुरा में
था, बनस्पर तथा लियाक नामक क्षत्रपों का नाम भी सुनते हैं।
बेन्सेन्ट महोदय का अनुमान है कि महाराष्ट्र के क्षहरात वंशी नहपाल और उज्जैन
का क्षत्रप चेष्टन कदाचित कनिष्क के ही सामन्त थे। कनिष्क की राजधानी को अनेक
भवनों, सार्वजनिक शाखाओं और बौद्ध विहारों से जोड़ा गया था। काश्मीर की
कनिष्कपुर नगरी को भी संभवतः उसने ही बसाया था, परन्तु राय चौधरी की धारणा है
कि इस नगर की स्थापना आरा अभिलेख वाले कनिष्क के द्वारा करायी गयी थी।
कनिष्क का धर्म - डॉ. राय चौधरी ने कहा है कि उसका यश उसकी विजयों पर उतना
अधिक अवलम्बित नहीं जितना कि शाक्य मुनि के धर्म को उसके राज्याश्रय प्रदान
करने पर, उसकी मुद्राओं तथा पेशावर (Casket) अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने
वास्तविक रूप में अथवा अपने शासनकाल में ही बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था,
पुरुषपुर अथवा पेशावर में उसने एक बौद्धसंघराम का निर्माण कराया था। एक बौद्ध
विहार बौद्ध तीर्थ के रूप में नवीं शताब्दी तक वर्तमान था जबकि प्रसिद्ध
बौद्ध विद्वान ने उसकी यात्रा की थी जो मगध के नरेश देवपाल के समय में
नालन्दा का महास्थाविर निर्वाचित किया गया था। कनिष्क के ही चैत्य का उल्लेख
अलवरूनी ने भी किया है, जो भी हो इसमें सन्देह नहीं कि कनिष्क का व्यक्तिगत
धर्म बौद्ध था।
1. समस्त बौद्ध ग्रन्थ कनिष्क के बौद्ध होने के प्रमाण हैं। उदाहरण के लिए
सूत्रालंकार में लिखा हुआ है कि आ-नि-चा कनिष्क की अनुरक्ति एकमात्र बौद्ध
धर्म में थी।
2. धम्मपिटक, निदान सूत्र भी कनिष्क को बौद्ध कहता है।
3. समस्त बौद्ध ग्रन्थ कनिष्क और बौद्ध विद्वान अश्वघोष में सम्बन्ध स्थापित
करते हैं।
4. राजतरंगिणी का कथन है कि कनिष्क ने काश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रचार किया
था और उसने बौद्ध विहार बनवाये थे।
5. तारानाथ भी कनिष्क को बौद्ध एवं बौद्ध प्रचारक बताता है।
6. ह्वेनसांग का कथन है कि महात्मा बुद्ध ने यह भविष्यवाणी की थी कि मेरे
निर्वाण के समय से 400 वर्ष बाद कनिष्क राजा होगा और वह बौद्ध धर्म का प्रचार
करेगा।
7. कनिष्क ने अपने राज्य में अनेक बौद्ध विहार बनवाये थे। पुरुषपुर में उसने
400 फीट ऊँचा और 13 मंजिल का टावर बनवाया था।
8. पेशावर (कास्केट) अभिलेख से ज्ञात होता है कि कनिष्क बौद्ध था।
9. कनिष्क के बौद्ध होने का सबसे बड़ा प्रमाण उसके द्वारा चौथी बौद्ध संगीति
का आयोजन करना था।
चौथी बौद्ध संगीति - कनिष्क का शासन बौद्ध धर्म के इतिहास में विशेष महत्व
रखता है, क्योंकि धार्मिक अध्ययन में गुत्थियाँ पाकर उसने अपने गुरु पाश्विक
अथवा पार्श्व की अनुमति से इनके सुलझाने के लिए सर्वास्तिवादन शाखा के 500
भिक्षुओं (महासंघ) की संगीति बुलायी। कुछ विद्वानों के अनुसार यह सभा काश्मीर
में आयोजित हुई थी तथा कुछ इतिहासकार इसे जलन्धर में मानते हैं। अधिकतर
विद्वानों के अनुसार इसका अधिवेशन काश्मीर के कुण्डलवन में हुआ था। वसुमित्र
इसका अध्यक्ष था और वसुमित्र की अनुपस्थिति में अश्वघोष उसका कार्य सम्पन्न
करता था। इस अधिवेशन के परिणामस्वरूप "विभाषाशास्त्र का प्रणयन हुआ और धर्म
के ऊपर बड़े-बड़े भाष्य सम्पादित हुए जिनको रक्तताम्र की चद्दरों पर खुदवा कर
एक स्तूप में सुरक्षित किया गया। कौन जानता है कि अमूल्य रत्न आज भी भूमि के
अन्दर समाधिस्थ पड़े हों और एक दिन पुराविद की कुदाल उन्हें प्रकाशित कर दे।
महायान का उदय तथा कारण - कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध तथा अन्य देवताओं की
आकृतियों का प्रादुर्भाव इस बात को सिद्ध करता है कि बौद्ध धर्म अब अपने
प्राचीन विचारों से दूर हटकर चलने लगा था। प्राचीन बौद्ध विचारों के अनुसार
बौद्ध मानवमात्र और जीवन यात्रा के पथ-प्रदर्शक मात्र थे, परन्तु उसका स्थान
देवपरक हो गया था। ये देवता माने जाने लगे थे जो उपासना द्वारा प्राप्त हो
सकते थे। उनके चारों ओर बोधिसत्वों तथा अन्य देवताओं का परिवार उठ खड़ा हुआ
था। इस मनोवृत्ति से बौद्ध में भक्ति के कारण मोक्ष अथवा निर्वाण की भावना
जागी। इसमें सन्देह नहीं कि आवागमन के बन्धन से मुक्ति वाले व्यक्ति के
प्रयास का प्राचीन आदर्श अब भी जीवित था परन्तु इसके साथ ही इस विचार का उदय
भी हुआ कि प्रत्येक मनुष्य अपना लक्ष्य बुद्धत्व प्राप्ति रख सकता है। इन
विचारों के अनुरूप ही जनपरक अनन्त अनुष्ठानों का भी उदय हुआ। महायान के उदय
के अनेक कारण हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं -
1. महात्मा बुद्ध के प्रति असीम श्रद्धा - बौद्ध अनुयायी महात्मा बुद्ध के
प्रति असीम श्रद्धा और आदर की भावना रखते थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् यही
आदरभाव भक्तिभाव में परिवर्तित हो गया, परिणामत: महात्मा गौतम बुद्ध की
मूर्ति-पूजा होने लगी।
2. भागवत धर्म का प्रभाव - विन्टरनिज, कर्न आदि विद्वानों का मत है कि भागवत
धर्म के भक्ति मार्ग से बौद्ध धर्म बड़ा प्रभावित हुआ। इसी प्रभाव से बौद्ध
धर्म में भक्ति के तत्व आ गये। कालान्तर में महात्मा बुद्ध को बौद्ध धर्म में
वही पद प्रदान किया गया जो भागवत धर्म में कृष्ण का है। भगवद्गीता की भाँति
बौद्धों ने भक्ति प्रधान ‘सद धर्म पुण्डरीकाछ' की रचना की और महात्मा बुद्ध
को अपना उद्धारक और करुणामय माना।
3. जैन धर्म का प्रभाव - जैन धर्मावलम्बियों ने अपने तीर्थांकरों की
मूर्ति-पूजा पहले से ही आरम्भ कर दी थी, अतः सम्भव है कि जैन धर्म ने भी
बौद्ध धर्म को भक्ति, अवतार और पूजा के तत्वों से प्रभावित किया है।
4. विदेशों का प्रभाव - डा. स्मिथ का विचार है कि जब बौद्ध धर्म विदेशों में
पहुँचा तो उस पर विदेशी धर्मों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। बौद्ध धर्म को
विशेष रूप से मध्य एशिया और ईरान की धार्मिक आस्थाओं ने बड़ा प्रभावित किया।
इसी प्रभाव के अन्तर्गत बौद्ध धर्म में महायान का उदय हुआ।
5. विदेशी आगन्तुकों का प्रभाव - भारत पर अनेक विदेशी जातियों के आक्रमण हुए।
इनमें से अनेक जातियाँ भारत में बस गयीं। बहुत से विदेशी आगन्तुकों ने बौद्ध
धर्म को स्वीकार कर लिया था। राबिन्सन महोदय ने अपना मत व्यक्त किया है कि इन
विदेशी बौद्ध धर्मावलम्बी लोगों ने धीरे-धीरे अपनी अनेकानेक मान्यताओं को भी
बौद्ध धर्म में प्रविष्ट करा दिया, परिणामस्वरूप विदेशी तत्वों से मिलकर बने
धर्म तत्व पर बौद्ध धर्म का राज्य रहा और मूल रूप में परिवर्तन हुआ।
6. ईसाई धर्म का प्रभाव - अनेक विद्धानों का मत है कि बौद्ध धर्म ने भक्ति और
करुणा के सिद्धान्तों को ईसाई धर्म से ग्रहण किया था। परन्तु अधिकांश विद्वान
इस मत को स्वीकार नहीं करते हैं।
इस प्रकार हीनयान के आदर्शवाद के ऊपर उदार जन धर्म की आवश्यकता थी और हीनयान
में उसकी भक्ति को प्रज्वलित करने की शक्ति न थी। इसके अतिरिक्त भारतीय समाज
में बाहरी जातियों का पुट तथा संस्कृतियों के अन्तरसंघर्ष ने भी बैद्ध धर्म
के इस नये सम्प्रदाय के समुदाय में योग दिया होगा।
कनिष्क की राज्यसभा - अनुश्रुतियों से विदित होता है कि कनिष्क की राज्यसभा
में पार्श्व, वसुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन, चरक, मातृचेट आदि अनेक उद्भट
बौद्ध दार्शनिक तथा विद्वान थे। कनिष्क के सम्बन्ध की ये कथायें विक्रमादित्य
की कथाओं के समान्तर हैं। परिगणित नामों में से प्रथम तीन तो कनिष्क द्वारा
आहूत बौद्ध संगीति के समर्थक दार्शनिक थे परन्तु अन्यों के सम्बन्ध में नहीं
कहा जा सकता है कि वे कहाँ तक कनिष्क के समकालीन थे।
कनिष्क की मृत्यु - कहा जाता है कि कनिष्क उत्तर में अपने ही अनुचरों द्वारा
जो उसके निरन्तर समरयान से थक गये थे, हत हुआ था, सेना के सेनापति द्वारा ही
कनिष्क मारा गया था। कनिष्क ने कम से कम 23 वर्ष तक राज्य किया, परन्तु आरा
अभिलेख के कनिष्क से उसकी एकता मानी जाय तो उसके शासनकाल का अन्तिम वर्ष 41
मानना होगा। कनिष्क की एक मस्तकरहित मूर्ति मथुरा जिले में माट नामक स्थान पर
मिली है जो आज भी मथुरा के संग्रहालय में सुरक्षित है।
मूल्यांकन : कनिष्क की उपलब्धियों को देखते हये यह कहा जा सकता है कि वह
भारतीय इतिहास के महान सम्राटों में एक था। गंगा घाटी में एक साधारण क्षत्रप
के पद से उठकर उसने अपनी विजयों द्वारा एशिया के महान राजाओं में अपना स्थान
बना लिया। अशोक के समान उसने भी बौद्ध धर्म के प्रचार में अपने साम्राज्य के
साधनों को लगा दिया। वह कभी भी धर्मान्ध अथवा धार्मिक मामलों में असहिष्णु
नहीं हुआ तथा बौद्ध धर्म के साथ-साथ उसने दूसरे धर्मों का भी सम्मान किया। इस
प्रकार कनिष्क में चन्द्रगुप्त जैसी योग्यता तथा अशोक जैसा धार्मिक उत्साह
देखने को मिलता है। कनिष्क एक विदेशी शासक था, फिर भी उसने भारतीय संस्कृति
में अपने को पूर्णतया विलीन कर दिया। उसने भारतीय धर्म, कला एवं विद्वता को
संरक्षण प्रदान किया और इस प्रकार उसने मध्य तथा पूर्वी एशिया में भारतीय
संस्कृति के प्रवेश का द्वार खोल दिया।
कनिष्क के दरबार में संरक्षण प्राप्त विद्वानों का परिचय
1. अश्वघोष - अश्वघोष चतुर्थ बौद्ध संगीति का उपाध्यक्ष था। वह उच्चकोटि का
साहित्यकार था, जिसकी तुलना मिल्टन, गेटे, कोट तथा वाल्टयर से की जाती है। वह
बौद्ध दार्शनिक, नाटककार तथा संगीतज्ञ था। उसकी रचना बुद्धचरित तथा
सूत्रालंकार थी। 'बुद्धचरित' बौद्ध लोगों की रामायण कही जाती है।
2. नागार्जुन - इसकी तुलना मार्टिन लूथर से की जाती है। वह दार्शनिक तथा
वैज्ञानिक था। उसने अपने ग्रन्थ 'माध्यमिक सूत्र' में सापेक्षता के सिद्धान्त
का प्रतिपादन किया, अतः उसे भारतीय आइन्स्टीन भी कहा गया है।
3. वसुमित्र - चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता का कार्य वसुमित्र के द्वारा
ही सम्पादित हुआ था। उसका प्रसिद्ध ग्रन्थ महाविभाषाशास्त्र है जो बौद्ध
जातकों पर टीका है। इसे बौद्ध धर्म का विश्वकोश कहते हैं।
4. चरक - चरक आयुर्वेद का विख्यात विद्वान था जो कनिष्क के दरबार में निवास
करता था। उसने 'चरक संहिता' की रचना की थी। चरक संहिता औषधिशास्त्र के ऊपर
प्राचीनतम रचना है। इसका अनुवाद अरबी तथा फारसी भाषाओं में बहुत पहले से ही
किया जा चुका था। चरक कनिष्क का प्रमुख राजवैद्य माना जाता था।
5. मथरा - यह कनिष्क का एक मंत्री था। तत्कालीन धार्मिक, साहित्यिक,
वैज्ञानिक, दार्शनिक व कलात्मक क्षेत्र को उसने अत्यधिक प्रभावित किया।
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