इतिहास >> ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्रईजी नोट्स
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बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।
छत्रपति साहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर के बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।
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प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साधन
(Sources of Ancient Indian History)
प्रश्न 1. प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने हेतु उपयोगी स्रोतों का वर्णन
कीजिए।
अथवा
प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के विभिन्न स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
भारतीय इतिहास जानने के साधनों को स्पष्ट कीजिए।
1. प्राचीन इतिहास जानने के साहित्यिक साक्ष्य बताइये।
2. प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने में पुरातात्विक साक्ष्य कहाँ तक उपयोगी
हैं ?
3. प्राचीन इतिहास को जानने हेतु विदेशी यात्रियों के विवरण से हमें किस
प्रकार सहायता मिलती है ? स्पष्ट कीजिए।
4. भारतीय इतिहास के प्रमुख स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
5. पुरातात्विक साक्ष्यों में अभिलेखीय साक्ष्य द्वारा इतिहास की कैसे और
किसकी जानकारी प्राप्त होती है ?
6. लेखन में मुद्रा सम्बन्धी साक्ष्यों के महत्व की विवेचना कीजिए।
7. प्राचीन भारतीय इतिहास ज्ञात करने के साधनों को समझाइये।
8. प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के पुरातात्विक स्रोत क्या हैं ?
उत्तर -
प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साधन
भारत का प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवपूर्ण रहा है। यद्यपि दुर्भाग्यवश हमें
अपने प्राचीन इतिहास के पुननिर्माण के लिए उपयोगी सामग्री बहुत कम मिलती है
फिर भी यदि हम सावधानीपूर्वक अपने प्राचीन साहित्यिक ग्रन्थों की छानबीन करें
तो उनमें हमें अपने इतिहास के पुननिर्माणार्थ अनेक महत्वपूर्ण सामग्रियाँ
उपलब्ध होंगी। इसके अतिरिक्त भारत में समय-समय पर विदेशों से आने वाले
यात्रियों के भ्रमण-वृतान्त भी प्राचीन इतिहास के विषय में अनेक उपयोगी
सामग्रियाँ प्रदान करते हैं। इसी प्रकार पुरातत्वेत्ताओं ने अतीत के खण्डहरों
से अनेक ऐसी वस्तुएँ खोज निकाली हैं जो हमें प्राचीन इतिहास विषयक महत्वपूर्ण
सूचनाएँ प्रदान करती हैं। अतः हम सुविधा की दृष्टि से भारतीय इतिहास जानने के
साधनों को निम्नलिखित तीन वर्गों में रख सकते हैं -
1. साहित्यिक स्रोत 2. विदेशी यात्रियों के विवरण, 3. पुरातात्विक स्रोत।
1. साहित्यिक स्रोत - साहित्यिक स्रोत के अन्तर्गत धार्मिक साहित्य तथा लौकिक
साहित्य आते हैं। धार्मिक साहित्य में ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेतर ग्रन्थों की
चर्चा की जाती है और ऐतिहासिक ग्रन्थों, जीवनियों, कल्पना-प्रधान तथा गल्प
साहित्य का वर्णन किया जाता है। इन स्रोतों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता
है -
(i) ब्राह्मण साहित्य - ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत
तथा पुराण आते हैं। इनका विवरण निम्नवत् है -
(अ) वेद - वेद भारत के सबसे प्राचीन धर्मग्रन्थ हैं। वैदिक युग की सांस्कृतिक
दशा के ज्ञान का एकमात्र स्रोत होने के कारण वेदों का ऐतिहासिक महत्व बहुत
अधिक है। प्राचीन काल के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण सभी सामग्री हमें प्रचुर
मात्रा में वेदों से प्राप्त हो जाती हैं। वेदों की संख्या चार है - ऋग्वेद,
यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। इन वेदों में ऋग्वेद समस्त आर्य जाति की
प्राचीनतम रचना है। इस प्रकार यह भारत तथा भारतेत्तर प्रदेश के आर्यों के
इतिहास, भाषा, धर्म एवं उनकी सामान्य संस्कृति पर प्रकाश डालता है। यजुर्वेद
या सामवेद से कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है। अथर्ववेद का ऐतिहासिक
दृष्टि से विशेष महत्व है। इसमें सामान्य मनुष्यों के विचारों तथा
अन्धविश्वासों का विवरण मिलता है। इसमें मानव जीवन के सभी पक्षों, जैसे -
गृह-निर्माण, कृषि की उन्नति, रोग निवारण, समन्वय, विवाह तथा प्रणय-गीतों,
राजभक्ति, राजा का चुनाव, विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों तथा औषधियों आदि का
विवरण मिलता है। इसके कुछ मन्त्रों में जादू-टोने का भी उल्लेख है जिससे इस
बात की जानकारी प्राप्त होती है कि इस समय तक आर्य-अनार्य संस्कृतियों का
समन्वय हो रहा था तथा आर्यों ने अनार्यों के कई सामाजिक एवं धार्मिक
रीति-रिवाजों एवं विश्वासों को ग्रहण कर लिया था।
(आ) ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् - वेदों के पश्चात् ब्राह्मणों, आरण्यकों
तथा उपनिषदों का स्थान है। इनसे उत्तर वैदिक युग के सामाजिक एवं सांस्कृतिक
जीवन के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। ऐतरेय, शतपथ, तैत्तिरीय,
पंचविश, गोपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थ वैदिक संहिताओं की व्याख्या करने के लिए
गद्य में लिखे गये हैं। इनसे हमें परीक्षित के बाद विम्बिसार के पूर्व की
घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। ऐतरेय में राज्याभिषेक के नियम तथा कुछ
प्राचीन राजाओं के नाम दिये गये हैं। शतपथ में गन्धार, शल्य, कुरु, पांचाल,
कोसल, विदेह आदि के राजाओं का उल्लेख मिलता है। प्राचीन इतिहास के स्रोत के
रूप में वैदिक साहित्य के बाद शतपथ ब्राह्मण का स्थान है। कर्मकाण्डों के
अतिरिक्त इसमें 'सामाजिक विषयों का भी वर्णन है। इसी प्रकार आरण्यक तथा
उपनिषद् भी प्राचीन इतिहास के विषय में जानकारी प्रदान करते हैं । यद्यपि ये
मुख्यतः दार्शनिक ग्रन्थ हैं जिनका उद्देश्य ज्ञान की खोज करना है।
(इ) वेदांग तथा सूत्र - वेदों को समझने के लिए छ: वेदांगों - शिक्षा,
ज्योतिष, कल्प, व्याकरण, निरुक्त तथा छन्द की रचना की गयी। इनसे वेदों के
शुद्ध उच्चारण तथा यज्ञादि करने में सहायता प्राप्त होती थी। इसी प्रकार
वैदिक साहित्य को सदा बनाये रखने के लिए सूत्र साहित्य की रचना की गयी।
श्रौत, गृह्य तथा धर्मसूत्रों के अध्ययन से हम यज्ञीय विधि-विधानों,
कर्मकाण्डों तथा राजनीति, विधि एवं व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण
जानकारियाँ प्राप्त करते हैं।
(ई) महाकाव्य : रामायण एवं महाभारत - भारत के सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य में
रामायण एवं महाभारत का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इनके अध्ययन से हमें
प्राचीन हिन्दू संस्कृति के विविध पक्षों का सुन्दर ज्ञान प्राप्त होता है।
इन महाकाव्यों द्वारा प्रतिपादित आदर्श तथा मूल्य सार्वभौम मान्यता रखते हैं।
महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण आदिकाव्य है जिससे हमें हिन्दू तथा यवनों
और शकों के संघर्ष का विवरण प्राप्त होता है। इसमें यवन देश तथा शकों के नगर
को कुरु तथा मद्र देश और हिमालय के बीच स्थित बताया गया है। इससे ऐसा अनुमान
लगाया जाता है कि उन दिनों यूनानी तथा सीथियन लोग पंजाब के कुछ भागों में बसे
हुये थे। इसी प्रकार वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत से प्राचीन भारत की
सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक दशा का परिचय मिलता है। प्राचीन राजनीति तथा
शासन की जानकारी हेतु महाभारत में बहुमूल्य सामग्रियों का भण्डार है।
(उ) पुराण - भारतीय ऐतिहासिक कथाओं का सबसे उत्तम और क्रमबद्ध विवरण पुराणों
से प्राप्त होता है। इनकी संख्या 18 है। अट्ठारह पुराणों में से केवल पाँच
में (मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड, भागवत) ही प्राचीन राजाओं की वंशावली
पायी जाती है। इनमें मत्स्य पुराण सबसे अधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक है।
पुराणों से हमें प्राचीन काल से लेकर गुप्तकाल के इतिहास से सम्बन्धित अनेक
महत्वपूर्ण घटनाओं के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाती है। छठी शताब्दी
ईस्वी पूर्व के पहले के प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निमाण के लिए पुराणों
को ही एकमात्र स्रोत माना जाता है।
(ii) ब्राह्मणेतर साहित्य - ब्राह्मणेतर साहित्य में बौद्ध तथा जैन साहित्यों
से सम्बन्धित रचनाओं का उल्लेख किया जा सकता है। इनका विवरण निम्नवत् है -
(1) बौद्ध ग्रन्थ - बौद्ध ग्रन्थों में 'त्रिपिटक' सबसे महत्वपूर्ण हैं।
बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके द्वारा दी गई शिक्षाओं को तीन भागों - विनयपिटक,
सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक में बाँटा गया, जिन्हें त्रिपिटक कहा गया।
त्रिपिटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये बौद्ध संघों के संगठन का पूर्ण
विवरण प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त निकाय तथा जातक आदि से भी हमें
बहुत-सी सामग्री उपलब्ध होती है। जातकों से बुद्ध के पूर्व-जन्म के बारे में
पता चलता है। कुछ जातक ग्रन्थों में बुद्ध के समय की राजनीतिक अवस्था का
विवरण मिलता है जिससे समाज और सभ्यता के विभिन्न पहलुओं का परिचय मिलता है।
पाली भाषा का एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'मिलिन्दपण्हो' है जिससे हिन्द-यवन
शासक मेनाण्डर के विषय में सूचनाएँ मिलती हैं।
(2) जैन ग्रन्थ - जैन साहित्य का दृष्टिकोण भी बौद्ध साहित्य के समान ही
धर्मपरक है। जैन ग्रन्थों में परिशिष्टपर्वन्, भद्रबाहुचरित, आवश्यकसूत्र,
भगवतीसूत्र, कालिकापुराण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनसे अनेक ऐतिहासिक
घटनाओं की सूचना मिलती है। जैन धर्म का प्रारम्भिक इतिहास 'कल्पसूत्र' से
ज्ञात होता है। परिशिष्टपर्वन् तथा भद्रबाहुचरित से चन्द्रगुप्त मौर्य के
जीवन की प्रारम्भिक तथा उत्तरकालीन घटनाओं की सूचना मिलती है। भगवतीसूत्र से
महावीर के जीवन, कृत्यों तथा अन्य समकालिकों के साथ उनके सम्बन्धों का
विस्तृत विवरण मिलता है। इसी प्रकार आचारांगसूत्र से जैन भिक्षुओं के
आचार-नियमों का पता चलता है। जैन साहित्य में पुराणों का भी महत्वपूर्ण स्थान
है, जिन्हें 'चरित' भी कहा जाता है। इनमें पदमपुराण, हरिवंशपुराण, आदिपुराण
इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि इनमें मुख्य रूप से कथाएँ दी गई हैं फिर भी
इनके अध्ययन से विभिन्न कालों की सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक दशा का
बहुत-कुछ ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
(ii) लौकिक साहित्य - लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक एवं
अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रन्थों तथा जीवनियों का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता
है -
(अ) ऐतिहासिक ग्रन्थ . ऐतिहासिक रचनाओं में सर्वप्रमुख ग्रन्थ कौटिल्य
(चाणक्य) का 'अर्थशास्त्र' है जिससे हमें मौर्यकालीन इतिहास एवं राजनीति के
विषय में जानकारी प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ से चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन
व्यवस्था पर प्रचुर मात्रा में प्रकाश पड़ता है। ऐतिहासिक रचनाओं में
सर्वाधिक महत्व कल्हण द्वारा विरचित 'राजतरंगिणी' का है। इसमें आदिकाल से
लेकर 1151 ई. के आरम्भ तक के कश्मीर के प्रत्येक राजा के समय की घटनाओं का
क्रमानुसार विवरण दिया गया है। इसी प्रकार सोमेश्वर कृत 'रसमाला' तथा
'कीर्तिकौमुदी', मेरुतुंग कृत 'प्रबन्धचिन्तामणि', राजशेखर कृत 'प्रबन्धकोश'
आदि से हमें गुजरात के चालक्य वंश के इतिहास एवं संस्कृति का विवरण प्राप्त
होता है।
(आ) अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रन्थ - अर्द्ध-ऐतिहासिक रचनाओं में पाणिनी का
'अष्टाध्यायी', कात्यायन का ‘वार्तिक', 'गार्गीसंहिता, पंतजलि का 'महाभाष्य',
विशाखदत्त का 'मुद्राराक्षस' तथा कालिदास का मालविकाग्निमित्र' इत्यादि
अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कात्यायन तथा पाणिनी के व्याकरण ग्रन्थों से मौर्यों
के पहले के इतिहास तथा मौर्ययुगीन राजनीतिक अवस्था पर प्रकाश पड़ता है। इनसे
उत्तर भारत के भूगोल की भी जानकारी होती है। 'गार्गीसंहिता' से भारत पर होने
वाले यवन आक्रमण का पता चलता है। 'मुद्राराक्षस' से चन्द्रगुप्त मौर्य के
विषय में सूचना मिलती है। इसी प्रकार 'मालविकाग्निमित्र' से शुंगकालीन,
राजनीतिक परिस्थितियों का विवरण मिलता है।
(इ) ऐतिहासिक जीवनी - ऐतिहासिक जीवनियों में बाणभट्ट का 'हर्षचरित', विल्हण
का 'विक्रमांकदेवचरित', अश्वघोष का 'बुद्धचरित', हेमचन्द्र का
'कुमारपालचरित', जयानक का 'पृथ्वीराजविजय' आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
'हर्षचरित' से सम्राट हर्षवर्द्धन के जीवन तथा तत्कालीन समाज के विषय में
सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। 'विक्रमांकदेवचरित' कल्याणी के चालुक्यवंशी नरेश
विक्रमादित्य षष्ठ के चरित्र का विवरण प्रस्तुत करता है। 'बुद्धचरित' में
गौतम बुद्ध के चरित्र का विस्तृत वर्णन हुआ है। इसी प्रकार 'पृथ्वीराजविजय'
से चाहमान राजवंश के इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है।
उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत से भी अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्राप्त हुये
हैं जिनसे वहाँ शासन करने वाले कई राजवंशों के इतिहास एवं संस्कृति के बारे
में ज्ञान प्राप्त होता है।
2. विदेशी यात्रियों के विवरण - इस विषय में विस्तृत विवरण अगले प्रश्न के
उत्तर में दिया गया है।
3. पुरातात्विक स्रोत - पुरातात्विक स्रोत के अन्तर्गत पृथ्वी के गर्भ में
छिपी यी सामग्रियों को शामिल किया जाता है। प्राचीन इतिहास के ज्ञान के लिये
पुरातात्विक प्रमाणों से बहुत अधिक सहायता मिलती है। पुरातत्व के अन्तर्गत
निम्नलिखित प्रकार के साक्ष्य आते हैं -
(i) अभिलेख - प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में अभिलेखों से बहुत सहायता
मिलती है। बहुत से अभिलेख पाषाण-शिलाओं, स्तम्भों, ताम्रपत्रों, दीवारों,
मुद्राओं एवं प्रतिमाओं आदि पर खुदे हुये प्राप्त हुये हैं।
मध्य एशिया के बोघजकोई से प्राप्त अभिलेख सबसे प्राचीन अभिलेखों में है। यह
हित्ती नरेश सप्पिलुल्युमा तथा मितन्नी नरेश मतिवजा के बीच सन्धि का उल्लेख
करता है। अपने यथार्थ रूप में अभिलेख अशोक के समय से ही हमें प्राप्त होते
हैं। अशोक के समय के कई स्तम्भ लेखों एवं शिलालेखों से उसके साम्राज्य की
सीमा, उसके धर्म तथा शासन नीति से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ
प्राप्त होती हैं। अशोक के बाद भी अभिलेखों की परम्परा कायम रही है। ऐसे
लेखों में खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, रुद्रदमन का जूनागढ़ अभिलेख,
समुद्रगुप्त का प्रयागस्तम्भ लेख, यशोधर्मन का मन्दसौर अभिलेख, पुलकेशिन
द्वितीय का एहोल अभिलेख, भोज का ग्वालियर अभिलेख अदि विशेष रूप से प्रसिद्ध
हैं। इनमें से अधिकांश लेखों से तत्सम्बन्धी राजाओं और उनके सैनिक अभियानों
के विषय में पता चलता है। कुछ अभिलेख ताम्रपत्रों, मूर्तियों आदि के ऊपर खुदे
हुए मिले हैं। इनसे भी प्राचीन इतिहास के विषय में अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएँ
प्राप्त होती हैं।
(ii) मुद्रायें अथवा सिक्के - भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में मुद्राओं
अथवा सिक्कों को महत्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य माना जाता है। यद्यपि भारत
मे सिक्कों की उपस्थिति आठवीं शती ईसा पूर्व से मानी जाती है तथापि ईसा पूर्व
छठी शताब्दी तक के सिक्के ही हमें प्राप्त हुए हैं। साधारणतया 206 ईसा पूर्व
से लेकर 300 ई. तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से मुद्राओं की
सहायता से ही होता है। कुछ मुद्राओं पर तिथियाँ भी खुदी मिली हैं जो कालक्रम
के निर्धारण में सहायक सिद्ध हुयी हैं। इन मुद्राओं से तत्कालीन आर्थिक दशा
तथा सम्बन्धित राजाओं की साम्राज्य-सीमा का भी ज्ञान होता है। किसी काल में
सिक्कों की बहुलता देखकर हम इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय
व्यापार-वाणिज्य विकसित दशा में था। सिक्कों की कमी को व्यापार-वाणिज्य की
अवनति का सूचक माना जा सकता है। मुद्राओं के अध्ययन से हमें सम्राटों के धर्म
तथा उनके व्यक्तित्व के विषय में पता चलता है। उदाहरण के लिये, हम कनिष्क तथा
समुद्रगुप्त की मुद्राओं को ले सकते हैं। कनिष्क के सिक्कों से इस बात की
जानकारी होती है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। समुद्रगुप्त अपनी कुछ
मुद्राओं पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है जिससे यह पता चलता है कि वह
संगीत-प्रेमी था। इसी प्रकार इण्डो-बैक्ट्रियन, इण्डो-यूनानी तथा
इण्डो-सीथियन शासकों के इतिहास के प्रमुख स्रोत सिक्के ही हैं।
(iii) स्मारक - इसके अन्तर्गत मन्दिर, मूर्तियाँ, प्राचीन इमारतें इत्यादि
आती हैं। मन्दिर, विहारों तथा स्तूपों से समाज के आध्यात्मिक एवं धर्मनिष्ठ
भावना का पता चलता है। विभिन्न स्थानों से प्राप्त सामग्रियों से प्राचीन
इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। देवगढ़ का मन्दिर,
भीतरगाँव का मन्दिर, अजन्ता की गुफाओं के चित्र, नालन्दा की बुद्ध की
ताम्रमूर्ति आदि से हिन्दू कला एवं सभ्यता के पर्याप्त विकसित होने के प्रमाण
मिलते हैं। दक्षिण भारत से भी अनेक स्मारक प्राप्त हुए हैं। तन्जौर का
राजराजेश्वर मन्दिर द्रविड़ शैली का उत्तम उदाहरण है। पल्लवकालीन कई ऐसे
मन्दिर मिले हैं जो वास्तु एवं स्थापत्य के उत्कृष्ट स्वरूप को प्रकट करते
हैं।
इस प्रकार साहित्यिक स्रोत, विदेशी यात्रियों के विवरण तथा पुरातात्विक स्रोत
के सम्मिलित साक्ष्य के आधार पर हम भारत के प्राचीन इतिहास का पुनर्निर्माण
कर सकते हैं।
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