भूगोल >> ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष भूगोल प्रथम प्रश्नपत्र ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष भूगोल प्रथम प्रश्नपत्रईजी नोट्स
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बी. ए. प्रथम वर्ष भूगोल प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।
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पृथ्वी की उत्पत्ति
अध्याय का संक्षिप्त परिचय
पृथ्वी सौर मण्डल का एक सदस्य है। सौर मण्डल के किसी भी सदस्य ग्रह की
उत्पत्ति समझने हेतु सौर मण्डल की सामान्य विशेषताओं का ज्ञान होना अति
आवश्यक है। सौर मण्डल में सूर्य के अलावा उसके नौ ग्रह है, जिनका आकार
तस्तरीनुमा है। पृथ्वी सूर्य से 1.496x 108 किमी0 की दूरी पर स्थित हैं,
जिसका व्यास 12,742 किमी0 तथा औसत घनत्व 5.52x 10 Kgm है।
आकार तथा संरचना की दृष्टि से सौर मण्डल के ग्रहों को दो प्रकारों से विभक्त
किया जाता है-
(i) आन्तरिक ग्रह
(ii) वाह्य ग्रह
आन्तरिक ग्रह आकार में छोटे हैं परन्तु उनका घनत्व अधिक है जबकि वाह्य ग्रह
आकार में
अत्यधिक वृहद् हैं परन्तु उनका घनत्व बहुत कम है। आन्तरिक ग्रहों की रचना
भारी पदार्थों जैसे सिलिकेट एवं धातुओं से हुई है जबकि वाह्य ग्रहों की रचना
हल्के तत्वों जैसे हाइड्रोजन, हीलियम और हाइड्रोजन यौगिक जैसे, जल, अमोनिया
और मीथेन से हुई है। सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर पश्चिम से पूर्व दिशा में
परिभ्रमण करते हैं, केवल शुक्र तथा अरुण उसके अपवाद हैं।
सौर मण्डल की उत्पत्ति तथा उसकी आयु की समस्याएँ अत्यन्त रहस्यपूर्ण रही हैं।
इस समस्या को सुलझाने के लिए विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न समयों में
अपने-अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं। प्रारम्भ में प्रत्येक परिकल्पना तथा
सिद्धान्त ने कुछ न कुछ समर्थन अवश्य प्राप्त किया परन्तु बाद में चलकर उनका
समर्थन जाता रहा। फिर भी ऐतिहासिक महत्व के दृष्टि से पृथ्वी की उत्पत्ति से
सम्बन्धित सभी विचार, परिकल्पना तथा सिद्धान्त अपना अलग-अलग महत्त्व रखते
हैं। यद्यपि प्राचीन काल में इस क्षेत्र में धार्मिक विचारधाराओं का बोलबाला
था तो समय के आगे बढ़ने पर वैज्ञानिक विचारधाराओं का। यदि पृथ्वी की उत्पत्ति
के विषय में विद्वानों का मत एक नहीं है, फिर भी इतना अवश्य बताया जा सकता है
कि सौर परिवार के सभी सदस्यों की उत्पत्ति एक ही क्रिया के अन्तर्गत हुई
होगी।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जो सिद्धान्त ग्रहों की उत्पत्ति से सम्बन्धित
हैं, वे ही पृथ्वी की उत्पत्ति पर भी प्रकाश डालते हैं। पृथ्वी के उत्पत्ति
के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं-
1. धार्मिक विचारधारा
2. वैज्ञानिक विचारधारा।
धार्मिक विचारधारा को वर्तमान वैज्ञानिक युग में मान्यता प्राप्त नहीं है
क्योंकि उसके प्राचीन मत तथा विचारधाराएँ तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती
हैं। पूर्णतया कल्पना पर आधारित होने के कारण धार्मिक विचारधारा मान्य नहीं
है।
वैज्ञानिक विचारधारा से सम्बन्धित परिकल्पना का प्रतिपादन सर्वप्रथम सन् 1749
में फ्रान्सीसी वैज्ञानिक ‘कास्ते द बफन' द्वारा किया गया था। इसके पश्चात्
इस क्षेत्र में अनेक विद्वानों ने अपने मतों का प्रतिपादन किया। परिणामस्वरूप
वर्तमान समय तक अनेक परिकल्पनाओं तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन हो चुका है
परन्तु किसी भी मत को पूर्णरूपेण मान्यता प्राप्त नहीं है। ग्रहों की
उत्पत्ति में भाग लेने वाले तारों की संख्या के आधार पर वैज्ञानिक संकल्पनाओं
को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है-
1. अद्वैतवादी संकल्पना
2. द्वैतवादी संकल्पना
अद्वैतवादी संकल्पना के अनुसार ग्रहों तथा पृथ्वी की उत्पत्ति केवल एक ही
वस्तु (तारा) से हुई मानी जाती है। इस समस्या को सुलझाने के लिए अनेक
विद्वानों ने अपने मत विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किये हैं। इस दशा में
सर्वप्रथम प्रयास ‘कास्ते द बफन' का रहा है। तत्पश्चात् 'इमैनुअल काण्ट'
लाप्लास, रॉस और लाकियर ने अपने मत प्रस्तुत किये।
द्वैतवादी संकल्पना के अनुसार ग्रहों की रचना एक से अधिक, खासकर दो तारों के
संयोग से मानी गयी है। इसी कारण इस संकल्पना को "द्वैतारक परिकल्पना” कहते
हैं। इस संकल्पना के अन्तर्गत चैम्बरलिन तथा मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना'
जेम्स जीन्स एवं जेफरीज की ज्वारीय परिकल्पना तथा एच0एन0 रसेल का द्वैतारक
सिद्धान्त प्रमुख है।
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