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चित्रलेखा

भगवती चरण वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 19
आईएसबीएन :978812671766

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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक

प्रश्न- क्या शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय स्थापित करना सम्भव है? यदि हाँ, तो कैसे?
उत्तर-
(1) वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय की आवश्यकता (Synthesis b/w Individual and Social Aims) - शिक्षा के वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्यों की अगर बात की जाए तो समय-समय पर इन पर विवाद होता ही रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि चाहे व्यक्ति हो या फिर समाज हो, दोनों को ही एक-दूसरे का विरोधी माना गया है। कुछ शिक्षाशास्त्रियों ने वैयक्तिक उद्देश्यों का समर्थन करते हुए यह कहा कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति का विकास किया जाना चाहिए। इनके विपरीत वे विचारक हैं जो कि शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य पर बल देने के साथ यह कहते हैं कि व्यक्ति को हमेशा समाज के हित के लिए अपना बलिदान देने के लिए तैयार रहना चाहिए। वास्तव में अगर देखा जाए तो दोनों ने ही व्यक्ति और समाज को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया है। इसी कारण व्यक्ति और समाज दोनों को समय-समय पर बहुत हानि उठानी पड़ी है।
इस हानि को रोकने के लिए केवल यही उपाय है कि वैयक्ति और सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय किया जाए। देखा जाए तो वास्तविक रूप से इसकी आवश्यकता भी है क्योंकि समन्वय होने से ही व्यक्ति और समाज दोनों का ही हित सम्भव है। इसे अगर हम ठण्डे दिमाग से सोचें तो शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक दोनों उद्देश्यों में समन्वय की कोई आवश्यकता नहीं है। इन दोनों में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि दोनों को एक-दूसरे से पृथक करना असम्भव है। सच तो यह ही है कि दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं
(2) वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्य : एक-दूसरे के पूरक (Individual & Social Aims : Complementary to Each Other) - शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक हैं क्योंकि चाहे वो व्यक्ति हो या फिर समाज दोनों ही अपनी प्रगति के लिए एक-दूसरे का सहारा चाहते हैं क्योंकि न तो हम समाज विहीन व्यक्ति की कल्पना कर सकते हैं और न ही व्यक्ति विहीन समाज की। एक के अभाव में दूसरे का जीवन असम्भव है। व्यक्ति के लिए समाज के महत्व को बताते हुए रॉस ने लिखा है कि "वैयक्तिकता का विकास केवल सामाजिक वातावरण में होता है जहाँ सामान्य रुचियों और सामान्य क्रियाओं से उसका पोषण हो सकता है।
रॉस के द्वारा लिखे गए कथन से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य की वैयक्तिकता और व्यक्तित्व का विकास केवल समाज के अन्तर्गत ही हो सकता है। जिस प्रकार से व्यक्ति समाज के लिए आवश्यक है उसी प्रकार समाज के लिए व्यक्ति आवश्यक है। ये दोनों मिलकर एक बनते हैं। इन दोनों का समन्वय वास्तविक सत्य है। दोनों एक-दूसरे के पूरक है। मैकाइवर के अनुसार - "सामाजीकरण और वैयक्तिकरण एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं।
(3) वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्यों के समन्वय के अनुसार शिक्षा का रूप (Nature of Education According to Synthesis b/w Individual and Social Aims) शिक्षा के वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्यों के समन्वय के साथ अब प्रश्न यह उठता है कि समन्वय के शिक्षा का रूप कैसा होगा। शिक्षा के इस रूप को निश्चित करने के लिये हमें ऐसी शिक्षा की अनुसार व्यवस्था करनी चाहिए जिसमें न तो समाज व्यक्ति को अपना दास बना सके और न ही व्यक्ति इतना स्वतन्त्र हो जाए कि वह समाज के नियमों को ठुकराकर अपनी मनमानी कर सके।
इस शिक्षा व्यवस्था में व्यक्ति और समाज दोनों की स्वतन्त्रता ऐसी सीमाओं में रहनी चाहिए जिससे कि दोनों का विकास और कल्याण हो सके।

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