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चित्रलेखा

भगवती चरण वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 19
आईएसबीएन :978812671766

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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक

प्रश्न- शिक्षा के दार्शनिक सम्प्रत्यय की विवेचना कीजिए।

उत्तर -

शिक्षा का दार्शनिक सम्प्रत्यय

दार्शनिकों का विचार केन्द्र मनुष्य होते हैं। ये मनुष्य के वास्तविक स्वरूप को जानने और उसके जीवन का अन्तिम उद्देश्य निश्चित करने का प्रयत्न करते हैं। मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति का साधन मार्ग निश्चित करने में भी दार्शनिकों की रुचि होती है और इन सबके ज्ञान एवं प्रशिक्षण के लिए वे शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। इस प्रकार दार्शनिकों की दृष्टि से शिक्षा मनुष्य जीवन के अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति का साधन होती है और चूँकि मनुष्य जीवन के अन्तिम उद्देश्य के सम्बन्ध में दार्शनिकों के भिन्न-भिन्न मत हैं इसलिए उनके द्वारा निश्चित शिक्षा की परिभाषाओं में भी भिन्नता है। जगतगुरु शंकराचार्य की दृष्टि से -
"शिक्षा वह है जो मुक्ति दिलाये।'
(सः विद्या या विमुक्तये - शंकराचार्य)
भारतीय मनीषी स्वामी विवेकानन्द मनुष्य को जन्म से पूर्ण मानते थे और शिक्षा के द्वारा उसे अपनी इस पूर्णता की अनुभूति करने योग्य बनाने पर बल देते थे। उनके शब्दों में - "मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।'
युग पुरुष महात्मा गाँधी ने शरीर, मन और आत्मा इन तीनों के विकास पर समान बल दिया है। उनके शब्दों में 'शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।" से यूनानी दार्शनिक प्लेटो भी शरीर और आत्मा दोनों के महत्व को स्वीकार करते थे। उनके विचार "शिक्षा का कार्य मनुष्य के शरीर और आत्मा को वह पूर्णता प्रदान करना है जिसके वे योग्य हैं।' प्लेटो के शिष्य अरस्तू मनुष्य के शारीरिक और मानसिक विकास पर बल देते थे। उनका विश्वास था कि उचित शारीरिक एवं मानसिक विकास होने पर ही मनुष्य आत्मा की अनुभूति कर सकता है। उन्होंने शिक्षा को अग्रलिखित रूप में परिभाषित किया है -
स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निर्माण ही शिक्षा है।' - अरस्तू
भौतिकवादी दार्शनिक मनुष्य में केवल लौकिक जीवन को ही सत्य मानते हैं। इनकी दृष्टि से मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य सुखपूर्वक जीना है और सुखपूर्वक जीने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य शरीर और मन के स्वस्थ और इन्द्रिय भोग के साधनों से सम्पन्न हो। यह सब कार्य वे शिक्षा द्वारा करना चाहते हैं। भौतिकवादी चार्वाकों की दृष्टि से - "शिक्षा वह है जो मनुष्य को सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने योग्य बनाती है।'
पाश्चात्य जगत के प्रकृतिवादी दार्शनिक भी भौतिक सुखों की प्राप्ति करने के पक्ष में हैं। उनकी दृष्टि से यह तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने अन्तः और बाह्य पर्यावरण में समन्वय स्थापित करें। हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार - "शिक्षा का अर्थ अन्त शक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है।'
पाश्चात्य दार्शनिकों में अब ऐसे दार्शनिकों का बाहुल्य है जो मनुष्य के जीवन को उसी रूप में देखते हैं जिस रूप में वह है। प्रयोजनवादी मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते हैं और यह मानते हैं कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य में वर्तमान समाज में अनुकूलन करने और भविष्य के समाज का निर्माण करने कई क्षमता का विकास करना चाहिए।

प्रयोजनवादी दार्शनिक जॉन डीवी के शब्दों में - "शिक्षा व्यक्ति की उन सब योग्यताओं का विकास है जो उसमें अपने पर्यावरण पर नियन्त्रण रखने तथा अपनी सम्भावनाओं को पूर्ण करने की सामर्थ्य प्रदान करें।'

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