बी ए - एम ए >> चित्रलेखा चित्रलेखाभगवती चरण वर्मा
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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक
प्रश्न- राष्ट्रीय एकता की समस्या पर प्रकाश डालिए।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण / एकता के मार्ग में कौन-कौन सी बाधाएँ है?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकता की समस्या
(Problem of National Integration)
भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। भारत में अनेक धर्म, सम्प्रदाय, जातियाँ, वर्ण तथा भाषायें हैं जिनके कारण राष्ट्रीय एकता में बाधा आती है। आर्थिक विषमता तथा सामाजिक असमानताओं के कारण अलगाववादी शक्तियाँ अपना सिर उठा रही है। इस समय यदि हम राष्ट्रीय एकता के महत्व को नहीं समझे तो हमारी स्वतन्त्रता खतरे में आ जाएगी। नेहरू जी ने राष्ट्रीय एकता के विषय में ठीक ही कहा था कि - "अब निश्चित रूप से समय आ गया है कि प्रत्येक भारतीय को अपने अन्दर देखना चाहिए और अपने आप से यह पूछना चाहिए कि वह राष्ट्र के साथ है या किसी विशिष्ट समूह के साथ। यह हमारे समय की चुनौती है जिसका प्रत्येक व्यक्ति व बच्चों को सामना करना है। हमने बड़े संघर्ष के बाद जो स्वतन्त्रता प्राप्त की है इसकी सुरक्षा और समृद्धि के लिए राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है।
स्वतन्त्र भारत में आर्थिक, क्षेत्रीय, जातीय, भाषायी, अलगाववाद जिस अनुपात में बढ़ा है इसी अनुपात से राष्ट्रीय एकता की भावना घटती जा रही है। वस्तुतः हम राष्ट्रीय एकता की समस्या को 'अनेकता में एकता' जैसे नारों में परिवर्तित करके स्वयं को भरमाते रहे हैं।
राष्ट्रीय एकता की समस्या - राष्ट्रीय एकता की समस्याओं को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा रहा है -
1. जातिवाद (Casteism) - भारत की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में जातिवाद प्रमुख समस्या है। प्रत्येक जाति अथवा धर्म का व्यक्ति दूसरे धर्म अथवा जाति के व्यक्ति से अपने को ऊँचा समझता है। इससे प्रत्येक व्यक्ति में एक-दूसरे के प्रति पृथकता की भावना इतना उग्र रूप धारण कर चुकी है कि इस संकुचित भावना को त्यागकर वह राष्ट्रीय हित के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाने में असमर्थ है।
2. साम्प्रदायिकता (Communalism) - साम्प्रदायिकता भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में महत्वपूर्ण समस्या है। हमारे देश में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि अनेक सम्प्रदाय हैं। यही नहीं इन सम्प्रदायों में भी अनेक सम्प्रदाय हैं। उदाहरण के लिए अकेला हिन्दू धर्म ही अनेक सम्प्रदायों में बँटा हुआ है। इन सभी सम्प्रदायों में आपसी विरोध तथा घृणा की भावना इस सीमा तक पहुँच गयी है कि एक सम्प्रदाय के व्यक्ति दूसरे सम्प्रदाय को एक आँख से नहीं देख सकते। प्रायः सभी सम्प्रदाय राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा केवल अपने-अपने साम्प्रदायिक हितों को पूरा करने में जुटे हुए हैं। इससे राष्ट्रीय एकता खतरे में पड गयी है।
3. प्रान्तीयता (Provincialism) - यह भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में एक बड़ी समस्या है। हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 'राज्य पुनर्गठन आयोग ने प्रशासन तथा जनता की विभिन्न सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए देश को चौदह राज्यों में विभाजित किया था। इस विभाजन के आज विघटनकारी परिणाम निकल रहे हैं। हम देखते हैं कि अब भी जहाँ एक ओर भाषा के आधार पर नए-नए राज्यों की माँग हो रही है वहीं दूसरी ओर प्रत्येक राज्य चाहता है कि इसका केन्द्रीय सरकार पर सिक्का जम जाए। इस संकुचित प्रान्तीयता की भावना के कारण देश के विभिन्न राज्यों में परस्पर वैमनस्य बढ़ता जा रहा है।
4. राजनीतिक दल (Political Parties) - हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् विभिन्न राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ। खेद का विषय है कि इन राजनीतिक दलों में से कुछ ही दल जो सच्चे अर्थ में राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होते हुए अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न कर रहे हैं।
5. आर्थिक विषमता (Economic Inequality) - हमारे देश में आर्थिक विषमता की खाई बहुत गहरी। मुट्ठी भर लोग अत्यधिक धनवान और अधिकांश लोग गरीब हैं। हर व्यक्ति में अधिक से अधिक धन की लोलुपता ने समाज में भ्रष्टाचार उत्पन्न किया है। गरीब व्यक्ति अपनी रोजी रोटी में इतना इलझा है कि वह राष्ट्रीय एकता की बात को सुनना या समझना नहीं चाहता। अर्थिक विषमता राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक है। राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए आर्थिक विषमता को दूर करना आवश्यक है।
6. नेतृत्व का अभाव (Lack of Leadership) - जनतन्त्र की सफलता के लिए कुशल नेतृत्व का होना आवश्यक है जिसका हमारे देश में अभाव है। भाई भतीजावाद, धन और राजनीति में अपराधीकरण के कारण अच्छे लोग नेतृत्व संभालने के लिए आगे नहीं आते हैं। आज के नेताओं को जनता शंका की दृष्टि से देखती है क्योंकि ये अपने व्यक्तिगत लाभों को पूरा करने में अधिक व्यस्त हैं। अधिकांश नेता किसी न किसी घोटाले या भ्रष्टाचार में फँसे हुए हैं। देश के नेता अपने निहित स्वार्थो के लिए जातीयता, साम्प्रदायिकता और प्रान्तीयता के नाम पर जनता को भड़का रहे हैं। कुशल नेतृत्व ही देश को एकता के सूत्र में बाँधकर रख सकता है। राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के लिए सफल, सुदृढ़ और स्वच्छ नेतृत्व की आवश्यकता है।
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