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गद्य संचयन

डी पी सिंह

राहुल शुक्ल

प्रकाशक : ज्ञानोदय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 10
आईएसबीएन :0

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बी.ए.-III, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक

छत्रपति साहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर के बी.ए. तृतीय वर्ष के द्वितीय प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक।

भूमिका

सामान्य लोक-व्यवहार में मानव भाषा के जिस रूप का प्रयोग करता है, उसे गद्य कहते हैं | भाषा-प्रयोग के छत्रपति साहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर के बी.ए. तृतीय वर्ष के द्वितीय प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक।

भूमिका

सामान्य लोक-व्यवहार में मानव भाषा के जिस रूप का प्रयोग करता है, उसे गद्य कहते हैं | भाषा-प्रयोग के इस रूप में नाटकीयता, वर्णनात्मकता, कथात्मकता, विचारात्मकता का सन्निवेश तो रहता है किन्तु इसे साहित्य नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः भाषा का मानव-व्यवहृत गद्य रूप वक्ता-श्रोता की अपेक्षा रखता है। इसे हम मौखिक रूप में ही प्रस्तुत करते रहे हैं। इसीलिए साहित्य की प्रारम्भिक परम्परा काव्यमय रही । शास्त्रीय नियमों में आबद्ध काव्य श्रुति-परम्परा के अनुकूल रहा है | परवर्ती संस्कृत साहित्य में गद्य-साहित्य के उदाहरण अवश्य मिलते हैं किन्तु सामान्यतः गद्य रचना को संस्कृत आचार्यों ने जटिल प्रक्रिया माना है । 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' जैसी उक्तियाँ इसका प्रमाण है।

श्रुति से पाठ्य की स्थिति मुद्रणकला के पश्चात् आयी। श्रवण परम्परा में जहाँ काव्य अनुकूल रहता है, वहीं पाठ्य परम्परा में गद्य अधिक प्रभावी होता है। विचारों की स्पष्टता, विविध-विषयों की सतर्क एवं सप्रमाण प्रस्तुति के लिए गद्य की अनुकूलता स्वतः सिद्ध है | पाठ्य-परम्परा में श्रोता की उपस्थिति अनिवार्य नहीं होती, न वक्ता की । मुद्रण कला ने अनुपस्थित एवं अनागत के लिए भी वर्ण्य को प्रस्तुत एवं संरक्षित किया | भाषा का दायित्व बढ़ा और उसका गद्य रूप भी साहित्य बना जो प्रत्यक्ष था । गद्य का विकास इसी का परिणाम है।

भारत में मुद्रण कला का विकास पाश्चात्य प्रभाव के साथ हुआ | योरोपीय सभ्यता ने जिस यांत्रि-चेतना को विकसित किया उसका एक रूप मुद्रण कला भी है। मुद्रण कला के साथ आंग्ल शासकों ने खोज की, उस आमफहम भाषा की जो भारतीय जनता से उनके मध्य संवाद स्थापित करा सके | धर्म प्रचार हेतु ईसाई मिशनरियों और शासकीय प्रयोजन के लिए आंग्ल शासकों ने जन-व्यवहार के लिए जिस भाषा का चयन किया वह शताब्दियों से भारत की एकतानता के लिए प्रतिबद्ध मध्य देश की भाषा खड़ी बोली थी | इस भाषा में साहित्य तो अत्यल्प था किन्तु इसका जन व्यवहार कश्मीर से कन्याकुमारी तक विविध धार्मिक एवं सांस्कृतिक कारणों से हो रहा था । अतः आगत अंग्रेजों को इसी भाषा को सिखलाने के लिए कलकत्ता के फोर्ट विलियम में कालेज की स्थापना हुयी जिसे हम फोर्ट विलियम कालेज के रूप में जानते हैं। फोर्ट विलियम कालेज के शिक्षकों लल्लू लाल, सदल मिश्र आदि ने ही वे रचनाएँ तैयार की जिन्हें खड़ी बोली गद्य की प्रारम्भिक रचनाएँ कहा जाता है। प्रेमसागर (लल्लू लाल), नासिकेतोपाख्यान (सदल मिश्र) सांस्कृतिक भी थीं और रोचक भी। इन रचनाओं से संस्कृति और भाषा का परिज्ञान अंग्रेजों ने किया।


मुद्रणकला का विकास होने के कारण तद्युगीन अन्य संस्थाओं ने भी उसका लाभ लिया और कालेज से इतर अन्य रचनाएँ भी गद्य में आयीं । इनमें ईसाई मिशनरियाँ और आर्य समाज प्रमुख हैं | खड़ी बोली के गद्यात्मक विकास के साथ एक नयी समस्या आयी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी अथवा फारसी प्रभावित हिन्दी | इंशा अल्ला खाँ (रानी केतकी की कहानी) के भाषा रूप और दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश के रूप में अन्तर है। कालान्तर में राजा लक्ष्मण सिंह और शिव प्रसाद सितारेहिन्द तक इस मामले ने विवाद का रूप लिया । इसी काल में हिन्दी की एक नयी विधा के रूप में पत्रकारिता का उदय हुआ । पत्रकारिता की भाषा विवाद की नहीं जनता की भाषा होती है। पत्रकारिता दैनन्दिन संवाद की भाषा है। अतः खड़ी बोली के भाषा रूप का स्थिरीकरण पत्रकारिता ने किया । हिन्दी गद्य के विकास का यह प्रारम्भिक क्रम है। यों तो परम्परा के निर्वहण के लिए आदिकाल से गद्य-रचनाओं के उदाहरण मिलते हैं किन्तु यह इतिहास को घसीटता है । मूलतः हिन्दी गद्य का विकास एक साहित्यिक परम्परा के रूप में आधुनिक युग में हुआ।

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